कहते हैं कि प्रेम और त्याग का विस्तार अगर कृष्ण हैं तो सार राधा है, कृष्ण धर्म के प्रसारक हैं तो आधार राधा हैं। कृष्ण और राधा तो एक दूसरे के पूरक हैं। ऐसी मान्यता है कि श्रीकृष्ण को केवल दो ही चीजें सबसे ज्यादा प्रिय थीं। ये दोनों चीजें भी आपस में एक-दूसरे से गहराई से जुड़ी हुई थीं- एक बांसुरी और दूसरी राधा... लेकिन क्या कृष्ण भक्त जानते हैं कि उनकी प्रिय राधा की मत्यु कैसे हुई थी और आखिर क्यों श्री कृष्ण को अपनी बांसुरी तोड़नी पड़ी थी।
राधारानी का जिक्र महाभारत में नहीं मिलता है। राधारानी का जिक्र पद्म पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण और यदुवंशियों के कुलगुरु गर्ग ऋषि द्वारा लिखित गर्ग संहिता में मिलता है। पद्म पुराण के मुताबिक, राधा वृषभानु नामक गोप की पुत्री थीं। कुछ विद्वान मानते हैं कि राधाजी का जन्म यमुना के निकट स्थित रावल ग्राम में हुआ था और बाद में उनके पिता बरसाना में बस गए। लेकिन अधिकतर मानते हैं कि उनका जन्म बरसाना में हुआ था।
गर्ग संहिता की एक कथा के अनुसार कृष्ण और राधा का विवाह बचपन में ही हो गया था। कहते हैं कि एक बार नंदबाबा श्रीकृष्ण को लेकर बाजार घूमने निकले तभी उन्होंने एक सुंदर और अलौकिक कन्या को देखा। वो कन्या कोई और नहीं राधारानी ही थीं। कृष्ण और राधा ने वहां एक-दूसरे को पहली बार देखा था। दोनों एक-दूसरे को देखकर मुग्ध हो गए थे। जहां पर राधा और कृष्ण पहली बार मिले थे, उसे संकेत तीर्थ कहा जाता है, जो कि नंदगांव और बरसाने के बीच है। इस स्थान पर आज एक मंदिर है। इसे संकेत स्थान कहा जाता है। मान्यता है कि पिछले जन्म में ही दोनों ने ये तय कर लिया था कि हमें इस स्थान पर मिलना है। यहां हर साल राधा के जन्मदिन यानी राधाष्टमी से लेकर अनंत चतुर्दशी के दिन तक मेला लगता है।
प्रचलित कथाओं के मुताबिक, भगवान कृष्ण से राधारानी का विरह तब हुआ। जब मामा कंस ने बलराम और कृष्ण को आमंत्रित किया। मथुरा जाने से पहले श्रीकृष्ण राधा से मिले थे। मथुरा जाते समय जब भगवान राधा रानी से मिले तो उन्होंने वृंदावन में आखिरी बार बांसुरी बजाई और राधा रानी से विदा लेने के बाद उन्होंने बांसुरी बजाना ही छोड़ दिया। भले ही राधा रानी के विरह में बांसुरी बजाना छोड़ दिया, लेकिन वो राधा रानी के दिलों के तार को जोड़ने वाली बांसुरी को नहीं छोड़ पाए। वृंदावन में 11 वर्ष 56 दिन के प्रवास के दौरान भगवान कृष्ण ने कभी सिले वस्त्र नहीं पहने और न ही कभी पैरों में पनही पहनी। लेकिन माथे पर मोर मुकुट और हाथों से बांसुरी को कभी अलग नहीं किया। भागवताचार्यों का मत है कि बांसुरी जहां प्रेम का प्रतीक है, वहीं मोर मुकुट काम त्याग का परिचायक है। इस प्रसंग की व्याख्या अलग-अलग विद्वानों ने अपने अपने तरीके से किया है, लेकिन इन सभी विद्वानों में कोई दो राय नहीं है कि दो शरीर में धरती पर अवतरित हुए भगवान कृष्ण और राधा रानी एक ही हैं, केवल लीला के लिए दो शरीर में अवतरित हुए हैं। ये बांसुरी ही तो थी जो इन दो शरीरों के तार को आपस में जोड़ने का काम करती थी। कई विद्वानों ने यहां तक माना है कि ये बांसुरी भी गोलोक धाम से ही आई थी।
कृष्ण के वृंदावन छोड़ने के बाद से ही राधा का वर्णन बहुत कम हो गया। राधा और कृष्ण जब आखिरी बार मिले थे तो राधा ने कृष्ण से कहा था कि भले ही वो उनसे दूर जा रहे हैं, लेकिन मन से कृष्ण हमेशा उनके साथ ही रहेंगे। इसके बाद कृष्ण मथुरा गए और कंस और बाकी राक्षसों का वध किया। इसके बाद प्रजा की रक्षा के लिए कृष्ण द्वारका चले गए और द्वारकाधीश के नाम से लोकप्रिय हुए। जब कृष्ण वृंदावन से निकल गए, तब राधा की जिंदगी ने एक अलग ही मोड़ ले लिया था। राधा श्रीकृष्ण के विरह में जीती और मरती रहीं। राधा ने अपना दांपत्य जीवन ईमानदारी से निभाया और जब वो बूढ़ी हो गईं तो उसके मन में मरने से पहले एक बार श्रीकृष्ण को देखने की आस जगी। सारे कर्तव्यों से मुक्त होने के बाद राधा आखिरी बार अपने प्रियतम कृष्ण से मिलने गईं। जब वो द्वारका पहुंचीं तो उन्होंने कृष्ण के महल और उनकी 8 पत्नियों को देखा, लेकिन वो दुखी नहीं हुईं। जब कृष्ण ने राधा को देखा तो वो बहुत प्रसन्न हुए। कहते हैं कि दोनों संकेतों की भाषा में एक-दूसरे से काफी देर तक बातें करते रहे। तब राधा के अनुरोध पर कृष्ण ने उन्हें महल में एक देविका के पद पर नियुक्त कर दिया।
कहते हैं कि राधा भगवान कृष्ण के महल से जुड़े कार्य देखती थीं और मौका मिलते ही वो कृष्ण के दर्शन कर लेती थीं। एक दिन उदास होकर राधा ने महल से दूर जाना तय किया। उन्होंने सोचा कि वो दूर जाकर दोबारा श्रीकृष्ण के साथ गहरा आत्मीय संबंध स्थापित करेंगी। कहते हैं कि राधा एक जंगल के गांव में में रहने लगीं। धीरे-धीरे समय बीता और राधा बिलकुल अकेली और कमजोर हो गईं। उस वक्त उन्हें भगवान श्रीकृष्ण की याद सताने लगी। आखिरी समय में भगवान श्रीकृष्ण उनके सामने आ गए। भगवान श्रीकृष्ण ने राधा से कहा कि वे उनसे कुछ मांग लें, लेकिन राधा ने मना कर दिया। कृष्ण के दोबारा अनुरोध करने पर राधा ने कहा कि वो आखिरी बार उन्हें बांसुरी बजाते देखना और सुनना चाहती हैं। श्रीकृष्ण ने बांसुरी ली और बेहद सुरीली धुन में बजाने लगे। श्रीकृष्ण ने दिन-रात बांसुरी बजाई। बांसुरी की धुन सुनते-सुनते एक दिन राधा ने अपने शरीर का त्याग कर दिया। कहते हैं कि श्रीकृष्ण राधारानी की मृत्यु बर्दाश्त नहीं कर सके और प्रेम के प्रतीकात्मक अंत के रूप में बांसुरी तोड़कर झाड़ी में फेंक दी। उसके बाद से श्री कृष्ण ने जीवन भर बांसुरी या कोई अन्य वादक यंत्र नहीं बजाया।
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