सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन यानी कि सीबीएफसी, देश में रिलीज होने वाली सभी फिल्मों को अपनी 4 कैटेगरीज में सर्टिफिकेट देने के लिए जाना जाता है। इस बोर्ड के पास इतनी शक्तियां होती है कि सर्टिफिकेट के लिए आई फिल्म अगर सही न हो तो उसे सर्टिफिकेट देने से भी मना कर सकता है। समाज का आइना कहे जाने सिनेमा को सर्टिफिकेट देने वाली सीबीएससी क्या है। सबसे पहले सीबीएससी क्या है और क्यों इसकी जरुरत पड़ी वो जानते हैं।
भारत के संविधान में सभी को अभिव्यक्ति की आजादी का मौलिक अधिकार दिया गया है। हालांकि इसमें कई चीजों को विस्तार से भी बताया गया है, जो अभिव्यक्ति पर उचित प्रतिबंध की भी बात करता है। यही चीज फिल्मों पर भी लागू होती है, क्योंकि सिनेमा मास मीडिया का एक ब्रॉड मीडियम है, जिससे देश- विदेश में लोगों तक विचारों, कहानी, कल्पनाओं को क्रिएटवी के जरिए फैलाया जाता है।
अब जाहिर है जब इतनी तादाद में लोगों को कोई चीज इन्फ्यूएंस कर सकती हो तो ऐसे में सावधानी बरतना.. जरुरत होती है। तो फिल्म में क्या दिखाया जाए और क्या नहीं। ये तय करने के लिए एक संस्था बनाई गई है, जिसको सीबीएफसी या सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन और शार्ट में सेंसर बोर्ड कहा जाता है। सेंसर बोर्ड एक लीगल ऑर्गेनाजेशन है, जोकि सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अंडर काम करती है। सीबीएससी की स्थापना सिनेमैटोग्राफ एक्ट 1952 के तहत की गई थी।
ये बोर्ड भारत में रिलीज होने वाली फिल्मों को चार तरह के सर्टिफिकेट U, U\A, A और S जारी करता है। हर कैटेगरी की एक गाइडलाइन होती है। जैसे फर्स्ट कैटेगरी यू यानी यूनिवर्सल सार्टिफिकेट ऐसी फिल्मों को दिया जाता है, जो हर वर्ग की ऑडियंस देख सकती है। सेकेंड U\A कैटेगरी में 12 साल से कम उम्र के बच्चे फिल्म को पेरेंट्स की निगरानी में देख सकते हैं। थर्ड है A कैटेगरी, इस कैटेगरी की फिल्म को सिर्फ एडल्ट ही देख सकते हैं। आमतौर पर बोल्ड सीन्स वाली फिल्मों को ये सर्टिफिकेट दिया जाता है। वहीं लास्ट कैटेगरी S में स्पेशल ऑडियंस ही फिल्म को देख सकती है। जैसे- अगर फिल्म को सिर्फ डॉक्टर्स या सेना के जवानों को दिखाना है तो उस फिल्म को ये सर्टिफिकेट देते हैं।
खैर, बोर्ड की अनुमति के बिना देश में किसी भी देसी-विदेशी फिल्मों का पब्लिकली रिलीज नहीं किया जा सकता है। सिनेमेटोग्राफ एक्ट 1952 के तहत फिल्मों की रिलीज से पहले उन्हें सर्टिफिकेट देना जरूरी है। सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति केंद्र सरकार करती है। बता दें कि CBFC के सदस्य किसी सरकारी पद पर नहीं होते। सिनेमेटोग्राफी एक्ट 1952 के तहत सीबीएससी की निर्माण हुआ, उसके दिशानिर्देश के मुताबिक, एक फिल्म को प्रमाणित नहीं किया जाएगा यदि इसका कोई हिस्सा भारत की संप्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों और सार्वजनिक व्यवस्था के विरुद्ध है।
बोर्ड इस फैक्ट पर गौर फरमाता है कि कहीं फिल्म के कंटेंट के कारण अदालत की अवमानना और किसी चीज की मानहानि तो नहीं हो रही है। फिल्म का समाज पर क्या इपेक्ट डालेगी, बोर्ड का काम इन सब पर ध्यान देना होता है। मीडिया रिपोर्टेस के मुताबिक सेंसर बोर्ड से फिल्म को सर्टिफिकेट मिलने में कम से कम 30 दिन और ज्यादा से ज्यादा 68 दिन लगते हैं। सेंसर बोर्ड में फिल्म को पास करने के लिए दो पैनल की व्यवस्था की गई है।
इसमें पहला पैनल जांच समिति होता है। इसमें चार लोग होते हैं, और इसमें दो फीमेल कैंडिडेट्स का होना जरुरी होता है। ज्यादातर फिल्में इसी पैनल के जरिए पास हो जाती हैं। हालांकि इस पैनल में बोर्ड के अध्यक्ष शामिल नहीं होता हैं। जांच समिती जब फिल्म को परख लेती है, तब रिटेन में रिपोर्ट तैयार होती है, जिसे अध्यक्ष के पास भेजा जाता है। दूसरा पैनल रिवाइजिंग कमिटी होता है, जिसमें अध्यक्ष के अलावा नौ सदस्य हो सकते हैं। जब जांच समिति फिल्म को सर्टिफिकेट देने से मना कर देती है, तो मामला रिवाइजिंग कमिटी के पास पहुंचता है। खास बात यह है कि इसमें पैनल के सदस्यों की पहचान गुप्त रखी जाती है। इस पैनल में उन्ही सदस्यों को स्थान मिलता है, जो पहले पैनल में शामिल ना हों। आपत्ति होने पर इस पैनल के पास भी फिल्म को रोकने का अधिकार है।
वैसे अगर सेंसर बोर्ड फिल्म को पास न करें तो ऐसे में मेकर्श फिल्म के सर्टिफिकेट के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकते हैं। सेंसर बोर्ड का मेन ऑफिस मुंबई में है, इसके अलावा तिरुवनंतपुरम, हैदराबाद, कटक, कोलकाता, चेन्नई, बैंगलोर और गुवाहाटी में भी सेंसर बोर्ड के कार्यालय हैं।
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