पंडित एक ऐसा शब्द जिसको सुनते ही सबसे पहला ख्याल आता है सामाजिक रूप से अगड़ा माने जाने वाले ब्राह्मण समाज का... लेकिन इसे मात्र जाति की अवधारणा ही कहा जा सकता है। क्योंकि इस शब्द का इस्तेमाल ताकत और एक पद के तौर पर भी किया गया। जिसका उदाहरण उत्तर प्रदेश की राजनीति में यादव से पंडित बने मुलायम सिंह यादव के खासमखास विधायक रहे जवाहर यादव 'पण्डित' का एक नाम है, जिसने अपने दम पर बाहुबल और राजनीति की सीढ़ियां नापी थी। जवाहर का नाम मुलायम सिंह यादव की जुबान पर रहता था, जिसे संगम की धरती पर घेरकर बीच सड़क एके-47 से भून डाला गया। साफ़ तौर पर पंडित के इस टाइटल या उपनाम का इस्तेमाल वो अपनी ताकत के प्रदर्शन के लिए कर रहे थे। इसके अलावा बिहार के कुछ जिलों में आपको मंझोली जातियों और महादलितों में यादव पंडित, कुम्हार पंडित, चौधरी पंडित और यहां तक कि मुसहर पंडित भी मिल जाएंगे। ये वो लोग हैं, जिन्होंने पंडित सिर्फ टाइटल के तौर पर ही इस्तेमाल नहीं किया बल्कि पंडिताई करके ही अपना जीवन यापन कर रहे।
लोगों ने कर्मकांड की दीक्षा लेना शुरू किया और ये दीक्षा मंझौली और महादलितों को दी गई यानी यादव, कुर्मी, कोइरी, तेली, जुलाहा से लेकर मुसहरों तक को। एक बार दीक्षित होने के बाद ये लोग अपनी अपनी जाति के पंडित कहलाए। जैसे - मुसहर पंडित, यादव पंडित, पासवान पंडित से लेकर कुर्मी पंडित तक। ये लोग सभी तरह के पूजा पाठ, जैसे सत्यनारायण कथा, शादी विवाह, गृह प्रवेश, भागवत कथा कहने लगे। यहां तक कि मौत के बाद होने वाले श्राद्ध भोज भी कराने लगे। इन पंडितों ने दो काम किए - पहला यह अपनी और दूसरी यानी मंझौली और महादलितों के यहां पूजा पाठ कराया और दूसरा यह कि पूजा पाठ के विधि विधान का सरलीकरण किया। मसलन, मौत के बाद होने वाले कर्मकांड को ये लोग आर्य समाज विधान की तरह ही तीन दिन में संपन्न करा देते हैं। श्राद्ध के वक़्त दान की लंबी चौड़ी मांग नहीं करते। इनकी पूजा पद्धति में श्राद्ध भोज अनिवार्य नहीं है।
मधेपुरा से शुरू हुई ये परंपरा... बाद में सुपौल, पूर्णिया, कटिहार, सहरसा ज़िले में फैल गई। इसके अलावा दरभंगा, मधुबनी और मुंगेर में भी छिटपुट स्तर पर ऐसा देखने को मिलता है। ये सभी पंडित वैष्णव हो गए। लोग गले में तुलसी के मनके की माला पहनते हैं और मांस-मछली से परहेज करते हैं।
बिहार राज्य धार्मिक न्यास बोर्ड के अध्यक्ष आचार्य किशोर कुणाल ने दलित पुजारियों पर तीन भागों में 2,200 पन्नों की किताब 'दलित देवो भव' लिखी है। पुस्तक में कहा गया है कि “सभी जातियों और समूहों के लोगों को पुजारी या महंत के रूप में नियुक्त होने का अधिकार है। वास्तव में, कई महत्वपूर्ण मंदिर दलितों द्वारा स्थापित किए गए थे।”
उन्होंने सीतामढी (नवादा) के एक मंदिर का उदाहरण देते हुए कहा, लोगों का मानना है कि रामायण की सीता ने अपने वन प्रवास के दौरान वहां समय बिताया था और लव और कुश को भी जन्म दिया था. उन्होंने कहा, "यहां लगभग सभी जाति समूहों के अपने मंदिर हैं और अनुसूचित जाति और पिछड़े यहां बहुसंख्यक हैं।"
उन्होंने कहा, सिमरिया के धनेश्वर नाथ महादेव मंदिर में कुम्हार समुदाय के लोगों को पुजारी और पंडा बनाया जाता है। “ये मंदिर काफी हद तक बैद्यनाथ धाम मंदिर के समान है और इसके निकट एक शिव गंगा भी है। इसे गिद्धौर के राजा प्रताप सिंह ने बनवाया था।''
बात अगर देश की जाए तो साल 2018 में केरल में गैर-ब्राह्मणों को भी मंदिर का पुजारी नियुक्त किया गया। कोचिन देवास्वोम बोर्ड ने 54 गैर-ब्राह्मणों को पुजारी नियुक्त किया और इसमें भी खास बात ये है कि इन 54 पुजारियों में 7 दलित समुदाय से थे। और इसी साल तमिलनाडु के मदुरै में प्रसिद्ध देवी मीनाक्षी अम्मन मंदिर में एक गैर ब्राह्मण को ‘अर्चक’ यानी पुजारी बनाया गया था।
यहां दो बातें दिलचस्प हैं। पहली तो ये कि ब्राह्मण जिनका पारंपरिक काम ही पूजा-पाठ कराना है, उन्होंने 60 के दशक में शुरू हुए इस बदलाव का विरोध नहीं किया। इसकी वजह ये हो सकती है कि दूसरी जातियों के पंडित ख़ुद भी पढ़े-लिखे और दीक्षित थे। साथ ही इन्होंने पूजा पद्धति को सरल बनाकर और वैष्णव संप्रदाय अपनाकर अपनी स्वीकृति बढ़ाई।
दूसरी दिलचस्प बात है कि इस बदलाव को लेकर मंझौली और महादलित समाज दोफाड़ हो गया। यही वजह है कि आज भी जब इन इलाकों में शादियां तय होती हैं, तो उसमें अहम सवाल होता है कि पंडित किस जाति का होगा?
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