चंबल के असली डाकू गब्बर सिंह की कहानी, लोगों और पुलिसवालों के काट देता था नाक-कान

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भारतीय सिनेमा की ऑलटाइम ब्लॉकबस्टर साल 1975 में आई शोले एक ऐसी फिल्म थी, जिसका हर किरदार आज भी लोगों के जेहन में जिंदा है। खासकर वो डायलॉग तो आपको याद होगा जब गब्बर सिंह कहता है, ‘यहां से 50-50 कोस दूर गांव में जब बच्चा रोता है तो मां कहती है सो जा, नहीं तो गब्बर आ जाएगा’ लेकिन आज हम आपको असली डाकू गब्बर सिंह के बारे में बताने जा रहे हैं, इस गब्बर सिंह की दहशत तीन राज्यों के चंबल इलाके में फैली थी। वाकई में 50-50 कोस दूर तक उसके नाम से लोग कांप उठते थे।

साल 1926 में मध्य प्रदेश के भिंड जिले के डांग गांव के एक किसान परिवार में एक बच्चे का जन्म होता है। मां-बाप ने उसका नाम प्रीतम सिंह रखा, वो बचपन से ही बच्चा एकदम तंदुरुस्त और मोटा था, इसलिए परिवार के लोग प्यार से गबरा कहकर बुलाते। पिता गरीब थे और खेती करते थे, लेकिन खेती से गुजारा नहीं हो पा रहा था। इसलिए वो पत्थर की खदानों में मजदूरी करके परिवार को पालते थे। जैसे ही गबरा 16 साल का हुआ, पिता ने उसे भी खदान में मजदूरी के लिए लगा दिया। समय गुजरता गया और एक दिन जमीनी विवाद के चलते गांव के रसूखदारों ने गबरा के पिता की बुरी तरह से पिटाई कर दी। गांव में पंचायत बुलाई गई, लेकिन पंचायत से भी गबरा के परिवार को कोई न्याय नहीं मिला उल्टा पंचायत ने गबरा के पिता की जमीन अपने कब्जे में ले ली। गबरा से ये अन्याय देखा नहीं गया और साल 1955 में मौका पाते ही गबरा ने उन दो लोगों की हत्या कर दी, जिन्होंने उसके पिता के साथ मारपीट की थी और फिर सीधे चंबल के बीहड़ों में पनाह ले ली। उस वक्त चंबल में डाकू कल्याण सिंह का राज हुआ करता था। पुलिस पीछे थी, इसलिए कल्याण सिंह की गैंग में गबरा शामिल हो जाता है और डाकू गब्बर सिंह बन गया, कुछ महीने बाद ही गब्बर सिंह ने अपना अलग गैंग बना लिया। 

चंबल के बीहड़ का सबसे खूंखार डाकू

कहा जाता है कि डाकू गब्बर सिंह एक तांत्रिक को बहुत मानता था। एक दिन उस तांत्रिक ने उससे कहा, अगर तुम अपनी कुलदेवी के चरणों में 116 लोगों के नाक और कान काटकर चढ़ाओगे तो पुलिस तुमको कभी नहीं पकड़ पाएगी और न ही कभी तुम्हारा एनकाउंटर होगा। गबरा अंधविश्वासी था। इसके बाद उसने एक नियम बना लिया कि जिसकी भी हत्या करेगा, उनके नाक और कान काट लेगा, जिनका अपहरण करता था उनके भी नाक-कान काटकर जिंदा छोड़ देता था। जब भी पुलिस से मुठभेड़ होती, उनको मारता और उनके भी नाक-कान काट देता था। कुछ ही दिनों में उसने 100 से ज्यादा लोगों के नाक और कान काट लिए थे। इस तरह गब्बर के जुर्म की किताब में हर दिन एक नया पन्ना जुड़ता जा रहा था। साल 1957 तक गब्बर सिंह के खिलाफ लगभग हत्या, लूट, अपहरण और डकैती के 200 मामले कई पुलिस थानों में दर्ज हो चुके थे। 60 के दशक में गब्बर सिंह के नाम का आतंक यूपी, एमपी और राजस्थान में आतंक का पर्याय बना हुआ था।  

21 बच्चों को गोलियों से भून डाला था  

गब्बर को पकड़ने के लिए पुलिस के पास मुखबिरों के अलावा और कोई दूसरा ऑप्शन नहीं बचा था, लेकिन गब्बर के डर से उसके खिलाफ कोई भी कुछ बोलने को तैयार नहीं था। ऐसे में पुलिस हर दिन उसको पकड़ने के नए-नए तरीके खोजने में जुटी रहती थी। एक बार पुलिस ने कुछ बच्चों को अपना मुखबिर बना लिया था, क्योंकि जब डाकू गांव आते थे तो बच्चों की नजर उन पर रहती थी। बच्चे पुलिसवालों को गब्बर के मूवमेंट की जानकारी दे दिया करते थे। जब गब्बर को इस बारे में पता चला तो उसने शक की बिना पर भिंड के पास एक गांव के 21 बच्चों को एक साथ गोली मार दी। यही वो दौर था जब गब्बर सिंह का खौफ पूरे देश में फैल गया और असल में मां-बाप अपने बच्चे को समझाने या डराने के लिए गब्बर सिंह के आने का खौफ दिखाने लगे। देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को जब 21 बच्चों की हत्या की जानकारी लगी तो उन्होंने एमपी के सीएम कैलाश नाथ काटजू को कॉल किया।

1 लाख 10 हजार का इनाम घोषित था  

नेहरू ने उन्हें किसी भी हाल में, जल्द से जल्द गब्बर सिंह को पकड़वाने का आदेश दिया। काटजू पर बहुत ज्यादा दबाव आ गया था। उन्होंने तत्काल स्पेशल टास्क फोर्स का गठन किया और आईजी के एफ रुस्तम से कहा, “मुझे गब्बर सिंह चाहिए जिंदा या मुर्दा।” इसके बाद डाकू गब्बर सिंह पर 50 हजार मध्य प्रदेश सरकार, 50 हजार उत्तर प्रदेश सरकार और 10 हजार राजस्थान सरकार ने इनाम की घोषणा की। कुल मिलाकर डाकू गब्बर सिंह पर 1 लाख 10 हजार का इनाम घोषित हुआ। उस दौर में ये भारत में किसी वॉन्टेड अपराधी के सिर पर रखा गया सबसे बड़ा इनाम था। दिन बीतते गए, महीने बीते, यहां तक कि साल भी गुजर गए, लेकिन टीम को गब्बर को पकड़ने में कोई कामयाबी नहीं मिल रही थी। डाकू गब्बर सिंह का गांव वालों के बीच इतना खौफ था कि कोई भी उसके बारे में कुछ भी बताने को तैयार नहीं था। 

इस घटना ने पूरे गांव को मुखबिर बनाया

एक दिन अचानक भिंड के पास एक गांव के कुछ घरों में आग लग जाती है। सभी लोग भाग कर अपनी जान बचा लेते हैं, लेकिन एक घर के अंदर एक छोटा सा बच्चा फंस जाता है। आग इतनी तेज थी कि कोई भी अंदर जाने की हिम्मत नहीं कर पाया। तभी वहां डिप्टी एसपी राजेंद्र प्रसाद मोदी पहुंच जाते हैं और वो अपनी जान पर खेल कर उस बच्चे को बचा लाते हैं। इस घटना से गांव वालों के दिल में डीएसपी मोदी के लिए इज्जत बढ़ जाती है। गांव वाले जब बच्चे की जान बचाने के बदले डीएसपी मोदी को धन्यवाद देते हैं तो वो गांव वालों से रिक्वेस्ट करते हैं कि गब्बर सिंह की खबर लगे तो हमें जरूर बताना। इस पर गांव वाले गब्बर की खबर देने को तैयार हो जाते हैं।  

साल 1959 में हुआ डाकू गब्बर सिंह का अंत  

MP के IG केएफ रुस्तम इस पूरे ऑपरेशन पर नजर बनाकर रखे हुए थे। कुछ दिनों बाद जिस बच्चे की जान डीएसपी मोदी ने बचाई थी उसी बच्चे के पिता मोदी को जानकारी देते हैं कि आज गब्बर हाईवे से गुजरने वाला है। बस फिर क्या था 13 नवंबर 1959 को आईजी केएफ रुस्तम, डीएसपी राजेंद्र प्रसाद मोदी समेत पुलिस वालों की बड़ी टीम हाईवे पर गब्बर का इंतजार करने लगी। जैसे ही डाकू गब्बर सिंह अपने साथियों के साथ वहां से निकलता है पुलिस फायरिंग शुरू कर देती है। गब्बर भी अपने साथियों के साथ छुपकर फायरिंग कर रहा होता है। इसी बीच डीएसपी मोदी गब्बर पर बैक टु बैक 2 ग्रेनेड फेकते हैं। ग्रेनेड के फटने से गब्बर का जबड़ा फट जाता है। फिर आईजी रुस्तम जाकर उसको गोलियों से भून देते हैं। इस मुठभेड़ में गब्बर समेत उसकी गैंग के 9 डाकू मारे जाते हैं और इस तरह से यूपी, एमपी और राजस्थान के लोग डाकू गब्बर सिंह के खौफ से आजाद हो जाते हैं। 

पिछले 10 साल से पत्रकारिता के क्षेत्र में हूं। वैश्विक और राजनीतिक के साथ-साथ ऐसी खबरें लिखने का शौक है जो व्यक्ति के जीवन पर सीधा असर डाल सकती हैं। वहीं लोगों को ‘ज्ञान’ देने से बचता हूं।

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