12 जून 1975 भारतीय राजनीति के इतिहास की वो तारीख जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने देश में पहली बार प्रधानमंत्री पर फैसला सुनाया गया था। क्या था वो मुकदमा जिसके रिजल्ट ने देश में इमरजेंसी की पृष्ठभूमि तैयार की थी? साथ ही सुनिए वो किस्सा भी जब जस्टिस सिन्हा ने प्रधानमंत्री के लिए कोर्टरुम में खड़े होकर अभिवादन के लिए एक परंपरा के तहत मना कर दिया था।
साल 1971, मार्च में हुए आम चुनावों में कांग्रेस को जबरदस्त जीत मिली थी, टोटल 518 सीटों में दो तिहाई से भी ज्यादा 352 सीटें कांग्रेस को हासिल हुईं थी। इंदिरा गांधी ने भी रायबरेली उत्तर प्रदेश की अपनी सीट से एक लाख से भी ज्यादा वोटों से जीत हासिल की थी। इस सीट पर उनके प्रतिद्दंदी प्रत्याशी राजनारायण थे। जोकि वाराणसी के रहने वाले समाजवादी नेता थे। इंदिरा गांधी और उनके बीच कई नीतिगत मतभेद भी थे।
साल 1971 के आम चुनाव से पहले उन्हें अपनी जीत पर काफी भरोसा था, रिजल्ट के ऐलान से पहले ही उनके समर्थक जीत के जुलूस निकालने लगे। लेकिन फिर इंदिरा गांधी की दमदार जीत की खबर आई। लेकिन राजनारायण ने हार नहीं मानी और इलाहाबाद हाईकोर्ट में इस जीत को चुनौती दे दी।इतिहास में इस मुकदमें को इंदिरा गांधी बनाम राजनारायण नाम से जानते हैं। इसमें उन्होंने इंदिरा गांधी पर चुनाव में जीत के लिए सरकारी मशीनरी और संसाधनों का दुरुपयोग करने का आरोप लगाया और इसलिए चुनाव निरस्त करने की मांग की।
इस पर सुनवाई शुरु हुई, देश की प्रधानमंत्री पर ये अनोखा केस इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा की कोर्ट में चल रहा था। वो दोनों तरफ की दलीलें सुन चुके थे। तो अब बारी थी इंदिरा गांधी के कोर्ट रुम में बयान दर्ज कराने की। जस्टिस सिन्हा ने इंदिरा गांधी को अदालत में अपना बयान दर्ज कराने के लिए पेश होने का हुक्म सुनाया। फिर 18 मार्च 1975 में वो दिन आया जब देश की प्रधानमंत्री को कोर्टरुम में किसी मुकदमें के लिए हाजिर होना था।
उन दिनों का एक किस्सा आज के राजनीति की गलियारों में एक बड़े उदाहरण के तौर पर याद किया जाता चाहिए, जब 18 मार्च 1975 को देश की प्रधानमंत्री को अदालत में पेश होना था और सुनवाई के लिए दोनों पक्षों की दमदार की जा चुकी तैयारियों के बीच लोग एक प्रोटोकॉल के दुविधा में थे।
दरअसल, अदालतों में सिर्फ जज के सामने ही खड़े होने परम्परा रही है, लेकिन जब अदालत में खुद प्रधानमंत्री को पेश होना हो, तो मौजूद लोग क्या करें? तो राजनारायण की तरफ के फेमस एडवोकेट रहे और बाद में कानून मंत्री बने शान्ति भूषण ने एक पत्रिका को बताया था कि इंदिरा गांधी के कोर्ट में प्रवेश करने से पहले जस्टिस सिन्हा ने कहा था कि अदालत में लोग तभी खड़े होते हैं जब जज आते हैं, इसलिए इंदिरा गांधी के आने पर किसी को खड़ा नहीं होना चाहिए।
बताया जाता है उस दिन लोगों को प्रवेश के लिए वहां पास बांटे गए थे। फिर करीब 10 बजे जब इंदिरा गांधी अदालत में पेश हुई तो वहां परिसर में शोरगुल माहौल हो गया। कोर्ट में इंदिरा गांधी को लगभग 5 घंटे तक अपने निर्वाचन से जुड़े सवालों के जवाब देने पड़े थे।
फिर 12 जून 1975 का वो दिन आया जब पहली बार देश के प्रधानमंत्री पर फैसला सुनाया जाना था, उस दिन इलाहाबाद हाईकोर्ट का कोर्टरूम नंबर 24 खचाखच भर हुआ था तो बाहर भी भारी भीड़ खड़ी थी, दुनिया भर की निगाहें मानों अदालत की ओर टिकी हुई थी। हालांकि ऐसा लाजिमी भी तो था क्योंकि राजनारायण बनाम इंदिरा गांधी के मुकदमे पर फैसला सुनाया जाना था।
ऐसा बताया जाता है कि उस दिन की सुनवाई की शुरुआत में ही जस्टिस सिन्हा की बातें ये साफ बता रहीं थी कि वो राजनारायण के तर्कों से सहमत हैं। हालांकि ये भी सच है कि राजनारायण की याचिका में जो 7 मुद्दे उन्होंने इंदिरा गांधी के खिलाफ गिनाए गए थे, जस्टिस सिन्हा उनमें से 5 में इंदिरा गांधी को राहत दे दी थी। लेकिन 2 मुद्दों पर उन्होंने इंदिरा गांधी को दोषी पाया।
फिर जस्टिस सिन्हा ने माना कि इंदिरा गांधी ने सरकारी मशीनरी और संसाधनों का दुरुपयोग किया इसलिए जनप्रतिनिधित्व कानून के अनुसार उनका सांसद चुना जाना अवैध है और फैसला सुनाया कि वो जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत अगले 6 सालों तक इंदिरा गांधी को चुनाव लड़ने के अयोग्य हैं। हालांकि उन्होंने इंदिरा गांधी को भ्रष्टाचार के आरोप से भी मुक्त कर दिया था। इसी के साथ अदालत ने कांग्रेस पार्टी को थोड़ी राहत देते हुए नई व्यवस्था बनाने के लिए तीन हफ्तों का वक्त दे दिया।
वैसे मीडिया रिपोर्ट्स में ऐसा जिक्र मिलता है कि जब इंदिरा गांधी और उनके समर्थको को अंदाजा होने लगा कि इलाहाबाद कोर्ट का ये फैसला उनके हक में नहीं बल्कि खिलाफ जाने वाला है तो ऐसे में जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा को प्रभावित करने की कोशिशें भी शुरू हुईं कि अगर वो राजनारायण वाले मामले में सरकार के हक में फ़ैसला सुनाते हैं, तो उन्हें तुरंत सुप्रीम कोर्ट में भेज दिया जाएगा। लेकिन इसका जस्टिस सिन्हा पर कोई असर नहीं हुआ।
इस फैसले के बाद कांग्रेस पार्टी में मंथन शुरू हुआ, कई मीडिया रिपोर्ट्स में ऐसा बताया गया है कि ‘इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया’ का नारा देने वाले कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष डीके बरुआ ने इंदिरा गांधी को अंतिम फैसला आने तक कांग्रेस अध्यक्ष बन जाने का सुझाव दिया था और वो खुद प्रधानमंत्री बन जाएंगे, ऐसा कहा था। लेकिन तब पीएम आवास में इस मंथन के बीच बेटे संजय गांधी ने इंदिरा गांधी इस्तीफा न देने की सलाह दी। उसके पीछे की वजह बताई जाती है कि उनका मानना था कि उस समय कि परिस्तिथियों में प्रंधानमंत्री पद के लिए यूं ही किसी पर भी भरोसा नहीं जताया जा सकता है। पिछले 8 सालों में खासी मशक्कत के बाद पार्टी में अपनी जो निष्कंटक स्थिति हासिल की है, उसे वे तुरंत खो देंगी।
जानकार बताते हैं कि इंदिरा गांधी अपने बेटे संजय गांधी की बात से सहमत हुईं और तय किया कि वो इस्तीफा देने के बजाय बीस दिनों की मिली मोहलत का फायदा उठाते हुए इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देंगी। फिर 11 दिन बाद 23 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते हुए हाईकोर्ट के इस फैसले पर पूरी तरह से रोक लगाने की अपील की। जिसके अगले ही दिन सुप्रीम के जज जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर ने फैसला सुनाते हुए पूरी तरह से रोक नहीं लगाने से इंकार किया, सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बने रहने की अनुमति तो दे दी लेकिन कहा कि वो अदालत का अंतिम फैसला आने तक सांसद के रूप में मतदान नहीं कर सकतीं। कोर्ट ने बतौर सांसद इंदिरा गांधी के वेतन और भत्ते लेने पर भी रोक बरकरार रखी।
कोर्ट के इस फैसले ने विपक्ष को और आक्रामक कर दिया। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अगले दिन यानी 25 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में जय प्रकाश नारायण की ऐतिहासिक रैली थी। जेपी ने इंदिरा गांधी को स्वार्थी और महात्मा गांधी के आदर्शों से भटका हुआ बताते हुए उनसे इस्तीफे की मांग की।
उस रैली में जय प्रकाश नारायण द्वारा कहा गया रामधारी सिंह दिनकर की एक कविता का अंश अपने आप में नारा बन गया है, ये नारा था- सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। 25 जून को दिल्ली में जयप्रकाश नारायण की इसी रैली के बाद इंदिरा गांधी ने आधी रात को आपातकाल की घोषणा कर दी।
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