जब सत्ता विरोधी लहर को रोकने के लिए किसी सत्ताधारी को एक फिल्म का सहारा लेना पड़े। सुनने में थोड़ा अजीब लग रहा होगा। पर ऐसा हुआ है, तारीख थी 06 फरवरी और साल 1977। आपातकाल अपने अंतिम पढ़ाव पर था। क्रेंद में इंदिरा की सरकार थी। आम चुनाव की घोषणा हो चुकी थी। पक्ष-विपक्ष की चुनावी रैलियों का सिलसिला जारी था। इसी बीच सरकार को एक फैसला लेना पड़ा कि दूरदर्शन में इस संडे फिल्म ‘वक्त’ नहीं ‘बॉबी’ दिखाई जाएगी। लेकिन सरकार फैसला क्यों लेना पड़ा था।
18 जनवरी, साल 1977। आपातकाल लगे हुए करीब 19 महीने हो चुके थे। तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी ने देश को संबोधित करते हुए मार्च में आम चुनाव कराने की घोषणा कर दी। वजह थी, इंदिरा गांधी को उनके सलाहकारों ने सलाह थी दी। अगर अगले दो महीने में चुनाव होते हैं तो आप फिर से पीएम बन सकतीं है।
ये वो वक्त था जब आपातकाल की वजह से पूरे देश में इंदिरा गांधी के खिलाफ माहौल बना था। विपक्ष के बड़े नेता जेल में ठूंसे जा चुके थे। और जो जेल के बाहर थे।
वो इंदिरा को ‘सिंहासन खाली करने’ की चुनौती दे रहे थे। चुनावी रैली का दौर जारी था।
सत्ता विरोधी लहर के बीच इंदिरा गांधी ने 5 फरवरी, साल 1977 को दिल्ली के रामलीला मैदान में एक रैली करके अपने चुनाव अभियान की शुरुआत की। इस रैली में भीड़ इकठ्ठा करने की जिन लोगों पर जिम्मेदारी थी। उन्होंने रैली वाले दिन स्कूल के टीचर, दिल्ली नगर निगम के इंप्यालाइस और मजदूरों को बसों में भर भरकर रामलीला मैदान पहुंचाया। लेकिन आपातकाल की पीड़ा जनता के जेहन में थी। इस नाराजगी के चलते इंदिरा की रैली में बेहद कम लोग आए। इंदिरा गांधी से लोगों का मोह भंग हो गया था। लोग उठकर घर जाने लगे। इंदिरा गांधी ने भाषण बीच में रोक दिया। ये रैली सफल नहीं हो पाई।
इसके अगले दिन 6 फरवरी साल 1977 को जयप्रकाश नारायण भी दिल्ली पहुंच गए। उनके साथ में कांग्रेस छोड़ चुके जगजीवन राम भी थे। तय हुआ कि जनता पार्टी भी रामलीला मैदान पर चुनाव रैली करेगी। इंदिरा गांधी नहीं चाहती थी कि जयप्रकाश नारायण और जगजीवन राम की रैली में लोग जाएं। तत्कालीन सूचना मंत्री विद्याचरण शुक्ल ने भीड़ को घर पर रखने का एक अनोखा तरीका निकाला। उस जमाने में दूरदर्शन में संडे को चार बजे एक फिल्म दिखाई जाती थी। लेकिन इस संडे चार नहीं बल्कि पांच बजे फिल्म दिखाई जाएगी। पुरानी फिल्में नहीं नई फिल्म दिखाई जाएगी।
उस दिन साल 1965 में रिलीज हुई फिल्म ‘वक्त’ दिखाई जानी थी। लेकिन सिर्फ तीन साल पुरानी ब्लॉकबस्टर फिल्म ‘बॉबी’ को दिखाने का फैसला किया गया। ये फिल्म उस जमाने में युवाओं में बेहद पॉप्युलर हुई थी। वजह थी इस फिल्म में खूबसूरत एक्ट्रेस डिंपल कपाड़िया हॉट सीन थे। जो उस जमाने के हिसाब से काफी बोल्ड थे।
फेमस जर्नलिस्ट कूमी कपूर अपनी किताब 'द इमरजेंसी - अ पर्सनल हिस्ट्री' में लिखतीं हैं कि ‘रामलीला मैदान में भीड़ न हो इसके लिए बसों को मैदान के आसपास भी फटकने नहीं दिया गया। लेकिन, सरकार का ये तरीका काम नहीं कर पाया। जय प्रकाश नारायण और जगजीवन राम ‘बॉबी’ फिल्म पर भारी पड़े। हजारों लोग लंबी दूरी का रास्ता तय करते हुए रामलीला मैदान पहुंचे।’
पांच बजते बजते न सिर्फ रामलीला मैदान पूरा भर चुका था बल्कि बगल के आसफ अली रोड और जवाहरलाल नेहरू मार्ग पर भी लोगों का सैलाब था।
हालांकि इस रैली से पहले एक रैली और हुई थी। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई की। उस दौरान अटल जी का भाषण सुनने के लिए लोगों में क्रेज था। उस रैली में उन्होंने जब बड़े ही शायराना अंदाज में कुछ लाइनें पढ़ी थीं।
पहली लाइन पढ़ी बाद 'मुद्दत के, मिले हैं दीवाने' फिर अपने चिरपरिचित अंदाज की तरह थोड़ी देर रुके। जनता की तालियों का शोर गूंज उठा। अगली लाइन पढ़ी 'कहने सुनने को, बहोत हैं अफसाने' वहां बैठे लोग चिल्ला पड़े। लोगों का जोश देख उन्होंने दो लाइनें और पढ़ी। 'खुली हवा में जरा सांस तो ले लें' 'कब तक रहेगी आजादी, कौन जाने।'
जब रैलियों का दौर खत्म हुआ। चुनाव हुए और जब चुनाव का परिणाम आया तो कांग्रेस सत्ता से बेदखल हो चुकी थी। ये कांग्रेस की इतिहास की सबसे बड़ी हार थी। आपातकाल का खामियाजा कांग्रेस को भुगतना पड़ा था।
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