दिवाली रोशनी का त्यौहार है, सालभर हम सब को दिवाली का इंतजार रहता है, खासतौर पर बच्चों को लेकिन बच्चों को दिवाली में सबसे ज्यादा पटाखे पसंद आते हैं। लेकिन ये पटाखों का चलन कहां से आया? आखिर दिवाली के लिए पटाखे इतने जरुरी क्यों हैं? ये सवाल हम में से ज्यादातर लोगों के मन में आता है, तो चलिए इसका जवाब जानते हैं।
पटाखा बनाने के लिए बारूद की जरुरत होती है और बारूद का आविष्कारक देश चीन को माना जाता है। चीनी लोगों की बीच मान्यता है कि आग अनिष्ट को भगा देती है और शोर भूत प्रेतों को डरा सकता है। इसीलिए वो नए साल के मौके पर पटाखों का इस्तेमाल करते थे। और कहा जाता है कि उन्हें बारूद का ज्ञान ईसा के पूर्व काल से ही था। वैसे आग भारत में भी पवित्र मानी जाती है और अगर बारूद की बात करें तो इसका भारत में भी इसकी जानकारी के सबूत काफी पहले से मिलते हैं। बारूद का सबसे पहला जिक्र महान विजय नगर साम्राज्य में मिलता है। बाबर की "बाबरनामा" में भी इसका जिक्र है। वैसे लोग ऐसा सोचते हैं कि मुगल भारत में बारूद लेकर आये जबकि मुगल तोप लेकर आये थे। बारूद का इस्तेमाल भारत में सबसे पहले विजय नगर ने बहमनी राज्य से युद्ध में किया था।
कुछ इतिहासकार बताते हैं कि भारत में आतिश दीपांकर नाम के बंगाली बौद्ध धर्मगुरु ने 12वीं सदी में इसे प्रचलित किया था, शायद वो चीन, तिब्बत और पूर्व एशिया से पटाखे चलाना सीखकर आए थे। लेकिन यहां ये समझना होगा कि प्राचीन ग्रंथों के मुताबिक भारत में लोग खुशी का इजहार रौशनी से करते थे। दीपावली के त्योहार पर भी ख़ुशी का इज़हार रौशनी से होता था, शोर कर के नहीं। हालांकि ऐसा नहीं है कि लोग इसके बारे में जानते नहीं थे, कई जगह जिक्र है कि भारत प्राचीन काल से ही रोशनी और आवाज़ के साथ फटने वाले यंत्रों से परिचित था। जैसे कौटिल्य के अर्थशास्त्र में एक ऐसे पाउडर का जिक्र है जो तेज़ी से जलता, तेज़ लपटें पैदा करता था। जिसे पटाखे के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता था। भारत में पटाखों का इतिहास 15वीं सदी से भी पुराना बताया जाता है, जिसके साक्ष्य पुरानी पेंटिंग्स में देखने को मिल जाते है। उन पेंटिग्स में फुलझड़ियों और आतिशबाजी के दृश्य उकेरे गए है। बाबर ने भारत पर जब हमला किया, तो उस समय हथियार के तौर पर बारूद के इस्तेमाल के कई तध्य मौजूद हैं।
साथ ही शाहजहां के बेटे दारा शिकोह के विवाह से जुड़ी 1633 की एक पेंटिंग में भी आतिशबाजी देखने को मिलती है। तो साफ पता चलता है कि उस समय के लोग रोशनी करने वाले पटाखों का इस्तेमाल अपने उल्लास के लिए करता था, लेकिन इसकी अधिकता नहीं थी और उन पटाखों में शोर भी नहीं था। इस अंदाजा इस किस्से से लगा सकते है कि जब 1526 में काबुल के सुल्तान बाबर ने मुग़ल सेना के साथ मिल कर दिल्ली के सुल्तान पर हमला किया तो इतिहासकारों के मुताबिक, उसकी बारूदी तोपें की आवाज़ सुन कर भारतीय सैनिकों के छक्के छूट गए, अगर भारत में पटाख़़े शोरगुल पटाखे फोड़ने की परम्परा रही होती तो शायद वीर सिपाही तेज़ आवाज़ से न डरते।
विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में किसी खुशी के मौके पर पटाखे 1990-91 के बाद से काफी लोकप्रिय होना शुरू हो गए थे। उसके बाद से भारत में पटाखों के इस्तेमाल ने तेजी पकड़ी। और आज दिवाली में लोग पटाखों के बिना त्यौहार तक पूरा नहीं मानते। इसी से पटाखों का यूज और व्यापार बढ़ता गया। भारत चीन के बाद विश्व में सबसे ज्यादा पटाखे मैनूफैक्टर करने वाला देश है। तमिलनाडु फायरवर्क्स एंड सोर्स मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन की मानें तो पिछले साल दिवाली 2022 में 6000 करोड़ का कारोबार हुआ था। जबकि साल 2016 और 2019 के बीच, हर साल की बिक्री लगभग ₹4,000 और ₹5,000 करोड़ के बीच थी।
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