आठ अगस्त साल 1942, जब भारत छोड़ो आंदोलन का प्रस्ताव पारित हुआ। डरी हुई अंग्रेज सरकार ने कई स्वतंत्रता सेनानियों को गिरफ्तार किया यहां तक नेहरू और गांधी भी जेल में थे। धारा 144 लगी हुई थी। उसके एक दिन बाद यानी 9 अगस्त 1942 को एक महिला ने मुंबई के आजाद मैदान में वहां झंडा फहरा दिया। अंग्रेजों ने गिरफ्तारी के लिए इन पर पांच हजार का इनाम रखा। पर ये निर्भीक होकर आजादी के लिए लड़ती रहीं।
खूब पढ़ाई की। आजादी के लिए कई बार जेल गईं। दिल्ली की पहली मेयर बनीं। देश और समाज के लिए काम किया। भारत रत्न मिला। पर निजी जिंदगी के कुछ पन्ने बेहद दुख भरे हैं। आज कहानी अरुणा आसफ़ अली की। जिनके घर वालों ने इनसे अपना रिश्ता तोड़कर जीते जी ही उनका श्राद्ध कर दिया।
बंगाल से हरियाणा -शिफ्ट हुए उपेंद्रनाथ गांगुली पत्नी अंबालिका देवी के साथ रहते। जो एक बंगाली ब्राह्मण थे और ये नैनिताल में बने एक होटल मालिक थे।
उन्ही के घर 16 जुलाई साल 1909 को अरुणा गांगुली का जन्म हुआ। अरुणा के घर पैसों की कोई कमी नहीं। चाहे लड़का हो या लड़की फैमिली के सभी पढ़े-लिखे। तो पिता उपेंद्रनाथ गांगुली ने भी अरुणा का एडमिशन लाहौर के एक कान्वेंट स्कूल में करा दिया। बचपन से ही तेज बुद्धि और क्लास में फर्स्ट आने वाली अरुणा ने नैनीताल से ग्रेजुएशन किया। इसके बाद वो गोखले मेमोरियल स्कूल कोलकाता में बतौर टीचर नौकरी करने लगीं।
इसी बीच इनकी जिंदगी में आसफ़ अली आए। जो बड़े वकील थे। ये वही आसफ़ अली थे जिन्होंने भगत सिंह का केस लड़ा था।
दोनों की मुलाकातें बढ़ी तो शादी का फैसला लिया। लेकिन ये आसान नहीं था। इस रिश्ते के बीच धर्म आड़े आया। और आसफ़ अरुणा से 23 साल बड़े भी थे। परिवार खिलाफ था। समाज ने भी कई बातें कीँ। अरुणा का इन सब बातों पर कोई फर्क नहीं। साल 1928 में अपनी मर्जी से शादी कर ली।
अरुणा आसफ़ अली अपनी किताब - 'रिसर्जेंस ऑफ़ इंडियन विमेन' में लिखती हैं कि
'शादी में मेरी फैमिली से कोई भी शामिल नहीं हुआ। पिता उपेंद्रनाथ गांगुली का निधन हो गया था। चाचा नागेंद्र नाथ गांगुली, जो एक यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर थे। उन्होंने कहा कि, तुम हमारे लिए मर चुकी हो। हमने तुम्हारा श्राद्ध भी कर दिया है।'
अब अरुणा गांगुली का नाम - अरुणा आसफ़ अली हो गया। लेकिन इनकी कहानी सिर्फ इतनी भर नहीं है।
ये वो दौर था जब देश के नौजवान आजादी के लिए सब कुछ न्योछावर कर रहे थे। महिलाएं भी पीछे नहीं थीं। अरुणा भी स्वतंत्रता आंदोलनों में भाग लेतीं। 1930 में नमक सत्याग्रह के दौरान अरुणा को एक साल की जेल हुई। रिहा होने के बाद फिर से 1932 में गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल में रखा गया। वहां अरुणा ने भूख हड़ताल की। कारण था भारतीय कैदियों के साथ बुरा बर्ताव। यहां से रिहा हुईं तो 10 सालों तक आंदोलनों से दूर रहीं। लेकिन अरुणा एक बार फिर से नायिका के तौर पर उभरीं।
साल था 1942, 'भारत छोड़ो आंदोलन' के तहत मुंबई में झंडा फहराया, आंदोलन की अध्यक्षता कर अंग्रेजों को खुली चुनौती दी। तब इन्हें ग्रैंड ओल्ड लेडी कहा गया। ‘ट्रिब्यून’ अखबार ने अरुणा के साहस के लिए ‘1942 की रानी झांसी’ की संज्ञा दी। गिरफ्तारी से बचने के लिए ये पांच सालों तक अंडरग्राउंड रहीं। खिसियाये अंग्रेजों ने इनकी प्रॉपर्टी को नीलाम कर दिया। तबीयत बिगड़ी तो महात्मा गांधी के कहने पर सरेंडर किया। एक साल बाद देश आजाद हुआ तो अरुणा को दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी की अध्यक्ष बनीं।
साल 1958 में वो दिल्ली की पहली मेयर चुनी गईं। दिल्ली में सेहत, विकास और सफाई पर खास ध्यान दिया। कुछ साल कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ी। साल 1960 में उन्होंने एक मीडिया पब्लिशिंग हाउस की भी नींव रखी। सामाजिक मुद्दों को उठाया।
साल 1975 में शांति और सौहार्द के लिए इंटरनेशनल लेनिन और 1991 में जवाहरलाल नेहरू अवार्ड मिला।
साल 1992 में पद्म विभूषण से सम्मानित अरुणा ने 87 साल की उम्र में 29 जुलाई साल 1996 में दुनिया से अलविदा कह दिया। निधन के एक साल बाद इन्हें साल 1997 में देश का सबसे बड़ा सम्मान भारत रत्न मिला।
साल 1953 में पति आसफ़ अली के निधन के बाद अरुणा ने जिंदगी के 43 साल अकेले ही एक कमरे के फ्लैट में गुजारे। जिंदगी भर पब्लिक ट्रांसपोर्ट में सफर किया।
दिल्ली के वसंत विहार के पास एक सड़क नाम अरुणा आसफ़ अली मार्ग और दरिया गंज के पास बनी एक सड़क नाम आसफ़ अली मार्ग रखा गया। दोनों आपस में नहीं मिलते। क्योंकि इनके बीच की दूरी 15-16 किमी की है। पर ये सच है वास्तविक जीवन में तमाम बंदिशों के बाद ये दोनों मिले थे।
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