मल्लिका-ए-ग़ज़ल बेग़म अख़्तर की जिदंगी कई हिस्सों में, बंटी हुई है। पिता ने ठुकराया, मां ने पाला। बहन को मार दिया गया। रेप हुआ। पति ने गाने रोका। मेहनत की सफलता मिली। फिल्में की, हजारों स्टेज शो किए। सम्मान मिले। शराब और सिगरेट को साथी बनाया।
वो जो हम में तुम में क़रार था,
तुम्हें याद हो कि न याद हो...
वही या'नी वा'दा निबाह का
तुम्हें याद हो कि न याद हो
मशहूर सरोद वादक अमज़द अली खान ने अपनी किताब 'Master on Masters' में 12 उस्तादों का ज़िक्र किया है जिसमें एक बेग़म अख़्तर भी हैं।
वो अपनी किताब में लिखते हैं कि ‘बेग़म अख़्तर की डेढ़ कैरेट के हीरे की नाक की कील, उनके चेहरे पर नूर बरपाती थी। वो जब गाती थीं तो पूरा का पूरा ऑडिटोरियम एक टक सिर्फ उन्हें सुनता। उनकी आवाज में वो दर्द छलकता था, जो सीधा सुनने वालों के दिल में उतर जाता। कई लोगों की आंखें नम हो जाती।’
आज कहानी 500 से भी ज्यादा गजलों को अपनी अवाज से सजाने वाली बेग़म अख़्तर की, बेग़म अख़्तर गायन की शैली को एक अलग मुकाम दिया। वो बेग़म अख़्तर जो खाना खाने की बेहद शौकीन थीं। जिनकी हाइट 5 फीट चार इंच थी, फिर भी ऊंची हील की चप्पलें पहनतीं, वो साड़ी में बेहद खूबसूरत लगती पर उनकी पसंदीदा पोशाक - तहमद और कुर्ता था और साथ में साथ में एक डुपट्टा भी रहता।
साल 1913 ये वो वक्त था जब देश में अग्रेंजों का सितम अपने चरम पर था। आजादी के लिए नौजवान अपनी जिंदगी भी दांव में लगाने को तैयार थे। तब यूपी के फैजाबाद के रहने वाले एक महशूर वकील असगर हुसैन, मेहरुनिशां की बेटी और चार भाइयों की इकलौती बहन मुश्तरी के प्यार में गिरफ्तार होते हैं। उनकी जिंदगी में मुश्तरी दूसरी पत्नी की हैसियत से दाखिल होती हैं। पर इस रिश्ते के खिलाफ खड़ी थी असगर हुसैन की फैमिली। दरअसल असगर हुसैन पहले से शादीशुदा थे। असगर हुसैन अपनी नई नवेली पत्नी को अलग घर में रखते हैं।
वक्त गुजरने के साथ 07 अक्टूबर, साल 1914 को मुश्तरी दो जुड़वां बेटियों की मां बनती हैं। जिसमें एक थीं जोहरा और दूसरी थीं जिन्हें हम बचपन में बिब्बी, छुटपन में अख़्तरी, जिनका शोहरत पाने के बाद का नाम अख़्तरी बाई फैजाबादी और निकाह के बाद का नाम बेग़म अख़्तर था।
बेग़म अख़्तर पर बहुत कुछ लिखा गया है। उनकी शिष्या और क्लासिकल सिंगर रीता गांगुली ने एक किताब लिखी है जिसका नाम है 'ए मोहब्बत’। किताब में वो इस बात को सिरे से खारिज करती हैं कि बेग़म अख़्तर और उनकी मां मुश्तरी तवायफ थीं। पर कई हिंदी और अंग्रेंजी बेवसाइट में जिक्र मिलता है कि बेग़म अख़्तर और उनकी मां तवायफ थीं। इस बात को लेकर हमेशा विवाद रहा है।
ये भी लिखा गया है कि ‘बेग़म अख़्तर बचपन में यौन शोषण का शिकार हुईं, उनका रेप हुआ और ये रेप बिहार के एक राजा ने किया था।’
बेग़म अख़्तर, जिनकी जिदंगी, कई हिस्सों में, बंटी हुई है। एक पिता असगर हूसैन हैं, जो उन्हें ठुकरा देते हैं। एक मां हैं, मुश्तरी, जो खुद दुख और दर्द झेलकर उन्हें पालती हैं। एक बहन जोहरा हैं जिसे लोग जहर देकर मार देते हैं। रेप के बाद पैदा हुई एक बेटी है, जिसको बेग़म अख़्तर दुनिया भर के तानों से बचने के लिए अपनी बहन कहतीं हैं। लंदन का पढ़ालिखा वकील पति है, जो उन्हें गाना गाने से रोकते हैं, जिससे वो डिप्रेशन में चली जाती हैं।
संघर्ष है, कड़ी मेहनत है। सफलता की बुलंदी है। फिल्मों में एक्टिंग है - सिंगिग है। दुनिया भर में हजारों स्टेज शो हैं। कई सारे सम्मान हैं। करोड़ों चाहने वाले हैं, कोई दोस्त कहता, कोई गुरु, तो कोई प्यार से अम्मी कहता। बेबाक अंदाज है। पर अकेलापन भी है, जिसे भरने के लिए संगीत था, शराब और सिगरेट का सहारा भी था। और यही वजह थी की बहुत कम उम्र वो दुनिया छोड़कर चली गईं।
मुश्तरी ने दो बेटियों को जन्म दिया। असगर हुसैन, इस जद्दोजदह में लगे रहे, शायद, उनकी फैमिली उनकी दूसरी पत्नी को अपना लें, पर ऐसा हुआ नहीं। इस दौरान वो अपनी पहली पत्नी के साथ रहते। और दूसरी पत्नी यानी मुश्तरी से कभी-कभी मिलने चले आते। कुछ खर्च के लिए पैसे दे जाते। पर ये सिलसिला, ज्यादा दिनों तक चल न सका। एक दिन असगर हुसैन ने मुश्तरी और अपनी दोनों बेटियों को जमाने भर की दर-दर ठोकर खाने के लिए छोड़ दिया।
फिर मुश्तरी ने अपनी दोनों बेटियों को पालने की जिम्मेदारी ली। तमाम संघर्ष झेलकर वो अपनी बेटियों को पढ़ाना चाहतीं, उनको आगे बढ़ाना चाहतीं। पर बेदर्द जमाने वालों से ये देखा न गया।
ये वो वक्त था जब लड़कियों को आगे बढ़ाने की सोच लोगों को हजम नहीं होती थी। और उन लड़कियों के लिए जिनके पिता ने भी उनको सहारा न दिया हो। समाजिक रूप से उन्हें सब हीन भावना से देखते।
एक दिन, किसी ने, मुश्तरी की दोनों बेटियों को जहर दे दिया। इसमें छोटी सी बिब्बी तो बच गई पर उनकी बहन जोहरा का इंतकाल हो गया। अब बिब्बी और उनकी मां मुश्तरी बचीं। मां मुश्तरी चाहतीं की बिब्बी पढ़ाई करें। पर बिब्बी ने बचपन में कुछ गजलें को सूना तो उसी में मन लग गया। वो शायरी अच्छी जानकारी रखतीं। सात साल की उम्र से गाना शुरू किया। कई उस्तादों से तालीम ली। अपने फन को निखारा। पर ये रास्ता, आसान नहीं था। क्योंकि तब गाना गाने वालीं लड़कियों को लोग अच्छी नजरों से नहीं देखते थे। ये पेशा तवायफों का था।
रीता गांगुली अपनी किताब 'ए मोहब्बत’ में लिखती हैं कि ‘छोटी से बिब्बी (बेग़म अख़्तर) को खरीदने के लिए कोठे चलाने वाले मां मुश्तरी को कोई भी रकम देने के लिए तैयार थे, पर मुश्तरी ने ऐसा होने नहीं दिया।’
वो आगे लिखती हैं ‘छोटी से बिब्बी (बेग़म अख़्तर) से उन्हीं के उस्ताद ने संगीत सिखाते वक्त यौन शोषण करने की कोशिश भी की।’
रीता गांगुली एक जगह ये भी लिखती हैं कि ‘उस दौर में संगीत सीखने वाली करीब 200 लड़कियों से बात की, और लगभग सभी ने अपने उस्तादों को लेकर यौन शोषण की शिकायत की।’
छोटी सी बिब्बी को लोग अब अख़्तरी बाई से जानते थे। तभी बिहार के एक राजा ने कद्रदान बनने के बहाने उनका रेप किया। इसके बाद उन्होंने छोटी सी उम्र में बेटी शमीमा को जन्म दिया। दुनिया का डर था तो उन्होंने इस बेटी को अपनी छोटी बहन बताया। कई सालों बाद इस बात का पता चला कि ये शमीमा उनकी बहन नहीं बल्कि बेटी है।
15 साल की उम्र में अख़्तरी बाई फैजाबादी के नाम से पहली बार स्टेज पर उतरीं। और जब उन्होंने दुनिया वालों के सामने गाया तो जैसे अपनी जिंदगी के सारे दर्द को आवाज के जरिए बाहर निकाल दिया। ये प्रोग्राम बिहार के भूकंप पीड़ितों के लिए चंदा इकट्ठा करने के लिए कोलकाता में हुआ था। यहां सरोजिनी नायडू भी मौजूद थीं।
वो अख़्तरी बाई फैजाबादी का गाना सुनकर इतनी प्रभावित हुईं कि उन्होंने बाद में उनके लिए एक खादी की साड़ी भिजवाई।
बेग़म अख़्तर ने फिल्मों में एक्टिंग और सिंगिग भी की है। साल 1933 की फिल्म ‘एक दिन का बादशाह’ से शुरू हुआ उनका ये सफर साल 1958 की फिल्म ‘जलसाघर’ से खत्म होता है। लेकिन बीच में बेग़म अख़्तर सब कुछ छोड़कर लखनऊ चली जाती हैं। वजह थी – मोहब्बत।
सिंगर रीता गांगुली अपनी किताब 'ए मोहब्बत’ में लिखती हैं कि ‘कई राजा-महाराजा उनका साथ पाने के लिए आगे पीछे घूमते थे, लेकिन बेग़म अख़्तर उन्हें कोई छूट नहीं देतीं। उन्होंने रामपुर के नवाब रजा अली खां का निकाह प्रस्ताव भी ठुकरा दिया था।’
बेग़म अख़्तर का दिल आया लखनऊ के बैरिस्टर इश्तियाक अहमद अब्बासी पर। दोनों ने शादी की। तभी से अख़्तरी बाई फैजाबादी का नाम हो गया - बेग़म अख़्तर। बैरिस्टर साहब को बेग़म अख़्तर का गाना पसंद नहीं था। शादी के बाद वो गाना नहीं गा सकती थीं। मां मुश्तरी का भी इंतकाल हो गया। वो खुद मां भी नहीं बन पा रही थीं। और इस अकेले पन को भरने के लिए अपने दो साथी बनाए - शराब और सिगरेट।
सरोद वादक अमजद अली खान अपनी किताब 'Master on Masters' में लिखते हैं ... ‘बेग़म अख़्तर चेन स्मोकर थीं। एक बार वो ट्रेन में सफर कर रही थीं। उस दौरान रात में एक स्टेशन पर गाड़ी रुकने पर जब उन्हें प्लेटफ़ॉर्म पर सिगरेट नहीं दिखाई दी तो उन्होंने गार्ड से सिगरेट मंगाने के लिए उसकी लालटेन और झंडा छीन लिया। तब गार्ड उनके दिए सौ रुपये से सिगरेट का पैकेट लाया और उसी के बाद ट्रेन स्टेशन से रुखसत हुई।’
सिगरेट की तलब इतनी की रमज़ान में वो सिर्फ आठ या नौ रोजे ही रख पाती। सिगरेट के कारण ही बेग़म अख़्तर ने 'पाकीज़ा' फिल्म छह बार देखी। दरअसल ‘सिगरेट पीने के लिए बेग़म अख़्तर को सिनेमाहाल से बाहर जाना पड़ता और वापस लौटने तक फिल्म आगे बढ़ चुकी होती। इस पर वो दोबारा फिल्म देखने जातीं और इस तरह वो छह बार में पूरी फिल्म देख पाईं।’
शराब और सिगरेट वजह से उन्हें फेफड़े की बीमारी के साथ ही डिप्रेशन भी हो गया। डॉक्टर्स बोले - सिर्फ गाने से बीमारी दूर हो सकती है। आखिरकार साल 1949 में वो ऑल इंडिया रेडियो लखनऊ से जुड़ीं। उन्होंने हिंदी फ़िल्मों में भी फिर सिंगिग और एक्टिंग शुरू कर दी।
जैसे-जैसे शोहरत बढ़ती गई, बेग़म अख़्तर प्रशंसकों से तो घिरती गईं, पर अंदर से अकेली थीं। जब अकेले होती जो उन्हें अपना अतीत याद आता। और वो शराब के नशे में डूब जातीं। वो हज़ गई, खुद से वादा किया कि अब शराब नहीं पीएंगे पर सिर्फ दो साल बाद ही ये वादा टूट गया।
30 अक्टूबर 1974 को बेगम अख्तर अहमदाबाद में मंच पर गा रही थीं। तबीयत खराब थी, अच्छा नहीं गाया जा रहा था। ज्यादा बेहतर की चाह में उन्होंने खुद पर इतना जोर डाला कि अस्पताल ले जाना पड़ा, जहां से वो वापस नहीं लौटीं। 60 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। लखनऊ में मां मुश्तरी बाई की कब्र के बगल में उन्हें दफ्ऩ किया गया।
ऐ मोहब्बत तिरे अंजाम पे रोना आया
जाने क्यूं आज तिरे नाम पे रोना आया ...
यूं तो हर शाम उमीदों में गुज़र जाती है
आज कुछ बात है जो शाम पे रोना आया ...
कहते हैं ऐसी सैकड़ों गजलें, जिसे लिखने वाले या उसे कंपोज करने वाले शायद न याद हों पर ये गजलें साल 1968 में पद्मश्री, साल 1972 में संगीत नाटक एकेडमी और साल 1975 में पद्मभूषण से सम्मानित बेग़म अख़्तर की वजह से याद रह जाती हैं।
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