फिल्म निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी का बड़ा घर परंतु एकाकी जीवन। उनकी पुण्यतिथि पर जानिए उनके जीवन और योगदान की कहानी Manchh न्यूज़ पर नवीनतम जानकारी प्राप्त करें |
30 सितंबर साल 1922, कोलकाता में जन्म हुआ। शुरुआती पढ़ाई के बाद कोलकाता यूनिवर्सिटी से साइंस में ग्रेजुएशन किया। फिर एक गर्ल्स कॉलेज में मैथ और साइंस पढ़ाने लगे। पर कुछ ही वक्त में ये नौकरी छोड़नी पड़ी। वजह उनके दादा जी बने। दादा को पसंद नहीं था वो लड़कियों के कॉलेज में पढ़ाएं। लिहाजा साल 1945 में एक अच्छी खासी टीचर की नौकरी छोड़कर कोलकाता के न्यू थियेटर में 60 रुपये महीने की पगार में बतौर लैब अस्सिटेंट काम करने लगे। और यहीं से शुरू हुआ ऋषिकेश मुखर्जी का ‘दा ऋषिकेश मुखर्जी’ बनने का सफर। वो डायरेक्टर थे जिनकी फिल्मों के किरदार आम आदमी से दिखते थे।
कहानी हमारी-आपकी जिंदगी से जुड़ी हुई होती थी। खूब हंसाते, खूब रुलाते और इन सबके बीच वो जिंदगी की फिलॉसफी समझा जाते। आज कहानी ग्रेट डायरेक्टर ऋषिकेश मुखर्जी की।
ऋषिकेश मुखर्जी कोलकाता के न्यू थियेटर पहुंचे तो उनकी मुलाकात फिल्म एडिटर बीएन सरकार से हुई उन्होंने फिल्मों की एडिटिंग सीखी। साल 1947 में बंगाली फिल्म ‘तथापी’ में बतौर एडिटर किया तो इनके काम पर ग्रेट फिल्म डायरेक्टर विमल राय की नजर गई।
साल 1952 की ‘मां’, 1953 की ‘दो बीघा जमीन’ और ‘परिणीता’, साल 1954 की ‘बिराज बहू’, 1955 की ‘देवदास’, 1958 की ‘मधुमती’ इन फिल्मों के विमल राय डायरेक्टर थे, जिनकी एडिटिंग ऋषिकेश मुखर्जी ने की।
कुछ फिल्मों में वो विमल राय के असिस्टेंट डायरेक्टर भी बने। ऋषिकेश मुखर्जी की एडिटिंग इतनी शानदार थी की डायरेक्टर राजेंद्र सिंह बेदी और डायरेक्टर नितिन बोस भी अपनी फिल्मों की एडिटिंग इन्हीं से कराते।
साल 1983 की फिल्म 'कुली' की एडिटिंग ऋषिकेश मुखर्जी ने की है।
बतौर एडिटर ये उनकी आखिरी फिल्म थी।
साल 1957, ऋषिकेश मुखर्जी मुंबई के अंधेरी में एक कमरे के मकान में रहा करते थे। गुरु के रूप में विमल राय थे, और दोस्त मिले उम्र में दो साल छोटे दिलीप कुमार। दिलीप कुमार ने ही ऋषिकेश मुखर्जी को फिल्में डायरेक्ट करने की सलाह दी।
साल 1957 की 'मुसाफिर' उनकी पहली फिल्म थी जिसे ऋषिकेश मुखर्जी ने डायरेक्ट किया। फिल्म में दिलीप कुमार, किशोर कुमार, निरूपा राय, नजीर हुसैन जैसे एक्टर थे। इन्होंने जिस तरह का सिनेमा बनाया उसे पहले किसी ने नहीं देखा था। फिल्म 'मुसाफिर' तीन कहानियों को जोड़कर बनाई गई थी। तीनों के मूड अलग थे पर लोकेशन एक थी। एक किराए के कमरे में रहने वाले किरदारों की खुशी, गम सभी तरह के अहसास फिल्म के जरिए दिखाए गए।
ऋषिकेश मुखर्जी का तरीका अलग था। वो लोगों को हंसाते-हंसाते रुला भी जाते। इसके बाद ऋषिकेश मुखर्जी ने साल 1959 में राज कपूर की फिल्म 'अनाड़ी' डायरेक्ट की।
कहानी थी अमीर हीरोइन और गरीब हीरो की। फिल्म सुपरहिट हुई, नेशनल अवार्ड मिला। ऋषिकेश मुखर्जी और राज कपूर की गहरी दोस्ती हो गई।
आलम ये था कि वो चाह कर भी साल 1973 की फिल्म 'आनंद' में राज कपूर बतौर हीरो नहीं ले पाए। क्योंकि वो राज कपूर को फिल्म में भी मरता नहीं देख सकते थे।
ऋषिकेश मुखर्जी अपने मिजाज का सिनेमा बनना चाहते थे। बढ़ी-बढ़ी फिल्मों को डायरेक्ट करने के ऑफर मिले पर ठुकरा दिए।
एक्टर बलराज साहनी के अनुरोध में उन्होंने साल 1960 की फिल्म 'अनुराधा' डायरेक्ट की। फिल्म में एक औरत के जज्बात और उसके अहसास को बढ़ी उम्दा तरीके से दिखाया गया था।
इस फिल्म को भी नेशनल अवार्ड मिला और ऋषिकेश मुखर्जी के बॉलीवुड में पैर जम गए। ऋषिकेश मुखर्जी ने साल 1962 की देवानंद की फिल्म 'असली-नकली' डायरेक्ट की। इस तरह से उन्होंने अपने दौर के सभी बड़े एक्टर दिलीप कुमार, राज कपूर और देवानंद के साथ काम किया। आने वाले वक्त में
छाया, मेम दीदी, आशिक, सांझ और सवेरा, बीबी और मकान, गबन, मझली दीदी जैसी बेहतरीन फिल्में डायरेक्ट कीं। साल 1966 की ‘अनुपमा’ और 1968 की ‘आशीर्वाद’ जैसी फिल्मों में उन्होंने पिता और बेटी के रिश्ते की अनोखी कहानी को अलग अंदाज में पेश किया।
वो समाज की बुराइयों के प्रति बेहद संजीदा थे जिसका दर्द साल 1969 की फिल्म 'सत्यकाम' में उभरा। जब फिल्म के हीरो धर्मेंद्र इन सभी के खिलाफ आवाज उठाते हैं।
ऋषिकेश मुखर्जी जिंदगी जीने की फिलोस्फी भी दे गए। साल 1971 की फिल्म आनंद के जरिए।
जिसमें कैंसर मरीज राजेश खन्ना जिंदगी के बचे दिनों में लोगों में खुशियां बांटना चाहता है। ऋषिकेश मुखर्जी के डायरेक्शन का ही कमाल था कि फिल्म का आखिरी सीन देखने के बाद राजेश खन्ना की मां बेहोश हो गईं थी। फिल्म आनंद ने राजेश खन्ना को तो बुलंदियों पर पहुंचाया। अमिताभ बच्चन को भी बाबूमोशाय के लिए फिल्म फेयर बेस्ट सपोर्टिंग का अवार्ड मिला।
साल 1971 में फिल्म गुड्डी से एक्ट्रेस जया भादुड़ी को एक्टिंग का मौका दिया।
अभिमान, मिली, आलाप, नौकरी, गोलमाल, नमक हराम और चुपके-चुपके ये वो फिल्में हैं जो कभी भुलाई नहीं जा सकती।
अपने चार दशक के सफर में करीब 45 से ज्यादा फिल्में डायरेक्ट कीं। इनकी फिल्मों के किरदार आम आदमी की तरह होते। जो बिल्कुल अपने जैसे लगते। उस दौर का हर कलाकार इनके साथ काम करना चाहता।
इससे सभी प्यार भी करते थे और डरते भी थे। क्योंकि ऋषिकेश मुखर्जी एक टीचर थे जिन्हें अनुशासन में रहना पसंद था।
साल 1980 की फिल्म 'खूबसूरत' को ऋषिकेश मुखर्जी ने अपने घर में शूट किया। मुंबई के एक कमरे में रहने वाले ऋषिकेश मुखर्जी का घर अब बहुत बढ़ा हो गया था। पर उनके साथ उनका अपना कोई नहीं था। शतरंज खेलने के शौकीन ऋषिकेश मुखर्जी के साथ उनके नौकर और कुछ पालतू जानवर ही रहते।
पत्नी का निधन हुए 30 साल हो चुके थे। तीन बेटियों की शादी हो चुकी थी। एक गम था जो साथ था छोटे बेटे का निधन और बड़ा बेटा विदेश में नौकरी करता था। कुछ दोस्त ही उनसे मिलने आते। पांच से ज्यादा टीवी सीरियल को डायरेक्ट करने वाले ऋषिकेश मुखर्जी ने साल 1998 में झूठ बोले कौवा काटे डायरेक्ट की जो उनकी आखिरी फिल्म थी।
आठ फिल्म फेयर और सात बार नेशनल अवार्ड से सम्मानित ऋषिकेश मुखर्जी को साल 1999 में दादा साहेब फाल्के मिला।
दादा साहेब फाल्के ने इंडियन सिनेमा की नींव रखी थी और सिनेमा में जान डालने वाले महान फिल्मकार ऋषिकेश मुखर्जी जिंदगी के आखिरी वक्त बुढ़ापे और बीमारियों से जूझते-जूझते 27 अगस्त, साल 2006 को 84 साल की उम्र में दुनिया छोड़कर चले गए।
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