Film Director Khwaja Ahmad Abbas : फिल्म की डंबिग सुनते-सुनते ही दुनिया को छोड़कर चले गए

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एक जर्नलिस्ट जिनका लिखा हुआ कॉलम 50 साल तक प्रकाशित होता रहा। शायद इसलिए क्योंकि इसमें आम आदमी की पीड़ा थी। एक स्टोरी राइटर जिसकी फिल्मों में देशभक्ति की झलक शायद इसलिए दिखती थी की उनके दादा को अंग्रेजों ने तोप से उड़ा दिया था। एक फिल्म डायरेक्टर जिसने अपनी फिल्मों में अमिताभ जैसे महानायक के साथ कई सुपरस्टार को मौका दिया। एक स्क्रीनप्ले राइटर, डायलॉग राइटर जिनके जवाहरलाल नेहरू तक दिवाने थे। एक भारतीय की जिसने बंटवारे का दंश झेला। जिसका पूरा परिवार पाकिस्तान चला गया। लेकिन वो भारत में रहे। एक प्रेमी जिसने 30 साल अकेले अपनी पत्नी की याद में गुजार दिए। आज कहानी फिल्मकार ख्वाजा अहमद अब्बास की जो अपनी आखिरी फिल्म की डंबिग सुनते सुनते इस दुनिया को छोड़कर चले गए। जो 40 साल तक एक किराये के कमरे में रहे। लेकिन उनकी एक वसीयत ने सबको चकित कर दिया।

हरियाणा के पानीपत में गुलाम-उस-सिबतैन अपनी पत्नी मसरूर खातून के साथ रहते थे। उन्हीं के घर 07 जून, साल 1914 को ख़्वाजा अहमद अब्बास का जन्म हुआ।

अहमद अब्बास के दादा ‘ख़्वाजा ग़ुलाम अब्बास’ 1857 के विद्रोह के शहीदों में से एक थे। कहा जाता है कि उनके दादा पानीपत के पहले क्रांतिकारी थे, जिन्हें अंग्रेजों ने तोप से बांधकर उड़ा दिया था।

परदादा, उर्दू शायर  ख़्वा जा अल्ताफ हुसैन हाली थे। उन्होंने ‘हाली मुस्लिम हाई स्कूल’ बनवाया था। इसी स्कूल से अहमद अब्बास ने शुरुआती पढ़ाई की।

साल 1933 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से बीए और साल 1935 में एलएलबी करने के बाद ख़्वाजा अहमद अब्बास ने ‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ अखबार में नौकरी की। यहां वो बतौर रिपोर्टर और फिल्म समीक्षक के रूप में काम करते। उनका एक कॉलम ‘लास्ट पेज’ काफी मशहूर हुआ।

जो साल 1935 से लेकर साल 1947 तक करीब 12 साल चला। बाद में उन्होंने ‘ब्लिट्ज’ ज्वाइन किया और यहां भी उनका ये कॉलम चलता रहा। ‘लास्ट पेज’ उर्दू में ‘आज़ाद कलम’ नाम से प्रकाशित होता था। जर्नलिज्म की हिस्ट्री में सबसे ज्यादा वक्त तक प्रकाशित होने ये कॉलम साल 1987 तक छपता रहा।

वो Indian People’s Theatre Association यानी इप्टा से भी जुड़े। उन्होंने ‘ये अमृता है’, ‘बारह बजकर पांच मिनिट’, ‘जुबैदा’ और ‘चौदह गोलियां’ जैसे नाटक लिखे और उनका डायरेक्शन भी किया।

अखबार में नौकरी और इप्टा से जुड़ने के दौरान ही वो फिल्मों की दुनिया में भी आए। वो इस दौरान फिल्मों की कहानियां लिखते। इनमें से एक थी, साल 1941 में रिलीज फिल्म नया संसार। इस फिल्म की कहानी के साथ डायलॉग और स्क्रीनप्ले भी अब्बास अहमद ने ही लिखा। इसी दौरान उन्होंने बंगाल के अकाल पर एक कहानी लिखी। और खुद डायरेक्शन में उतरे। फिल्म का नाम था साल 1945 में रिलीज हुई ‘धरती के लाल’। ये फिल्म इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में खूब सराही गई।

भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के अहमद अब्बास दोस्त थे। साल 1947 में जब देश का बंटवारा हुआ तो अहमद अब्बास की मां के साथ सभी परिवार के लोग पाकिस्तान चले गए लेकिन वो पाकिस्तान नहीं गए।

अहमद अब्बास के डायरेक्शन में बनी साल 1954 में रिलीज हुई फिल्म 'मुन्ना' को देखने के लिए जवाहर लाल नेहरू इतने उत्सुक थे कि उन्होंने इसका एक प्रिंट दिल्ली भेजने के लिए विशेष आदेश दिया। इसके बाद नेहरू इस फिल्म से इतना प्रभावित हुए कि। उन्होंने इसके चाइल आर्टिस्च मास्टर रोमी से मिलने की मंशा भी जाहिर की।

अहमद अब्बास ने साल 1941 से अपना बॉलीवुड का सफर शुरू किया था। इनका ये सफर साल 1991 तक चला।

इनकी आखिरी फिल्म हिना थी। जिसमें इन्होंने बतौर स्टोरी राइटर काम किया। इन 50 सालों के फिल्मी सफर में अहमद अब्बास ने कई एक्टर को खोजा और उनको कास्ट किया। जिसमें से एक महनायक अमिताभ बच्चन। अहमद अब्बास ने अमिताभ में मिनटों में प्रतिभा देखी और साल 1969 में रिलीज हुई “सात हिंदुस्तानी” में काम करने का मौका दिया।

ख़्वाजा अहमद अब्बास ने अमिताभ बच्चन के साथ पहली मुलाकात का पूरा किस्सा अपनी ऑटोबायोग्राफीआई एम नॉट एन आईलैंड’ में लिखा है-

वो अमिताभ बच्चन से अपनी पहली मुलाकात में पूछते हैं कि  

अहमद अब्बास बोले - “बैठिए - आपका नाम?”

अमिताभ ने अपना नाम बताया - “अमिताभ” (बच्चन नहीं)

अहमद अब्बास ने - “पढ़ाई?” के बारे में पूछा

बताया कि - “दिल्ली विश्वविद्यालय से बीए.”

अहमद अब्बास ने कहा - “आपने पहले कभी फिल्मों में काम किया है?”

अमिताभ बोले - “अभी तक किसी ने मुझे अपनी फिल्म में नहीं लिया.”

अहमद अब्बास ने पूछा - “क्या वजह हो सकती है ?”

अमिताभ बोले  - “उन सबने कहा कि मैं उनकी हीरोइनों के लिए कुछ ज्यादा ही लंबा हूं”

तभी अहमद अब्बास ने कहा कि - “हमारे साथ ये दिक्कत नहीं है, क्योंकि हमारी फिल्म सात हिंदुस्तानी में कोई हीरोइन है ही नहीं। और अगर होती भी, तब भी मैं तुम्हें अपनी फिल्म में ले लेता।”

अमिताभ के अलावा भी अहमद अब्बास ने कई एक्टर्स को मौका दिया। जिसके बाद उन सभी ने बॉलीवुड में अपना कामया।

1946 में अब्बास साहब ने अपनी पहली फिल्म “धरती के लाल” में बलराज साहनी को मौका दिया। अपने दौर के दिग्गज एक्टर देव आनंद में प्रतिभा मिली जो बंटवारे से पहले पंजाब से मुंबई आए थे। देव आनंद के पास रहने के लिए जगह नहीं थी तो वो अहमद अब्बास के ही एक कमरे के अपार्टमेंट में ही रहे। अहमद अब्बास ने राज कपूर जैसे स्टार के साथ काम किया। राज कपूर की “आवारा”, “श्री 420” जैसी फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखी।

अहमद अब्बास ने शम्मी कपूर, विमल आहूजा, टीनू आनंद, जलाल आगा, किरण कुमार जैसे एक्टर को भी मौका दिया। कामिनी कौशल, नादिरा, सिम्मी ग्रेवाल, शबाना आजमी जैसी कई एक्ट्रेस के करियर को भी तैयार किया। शबाना आजमी अक्सर उन्हें अपने करियर का श्रेय देतीं है।

अब्बास की डायरेक्शन में बनी उनकी आखिरी फिल्म साल 1988 में रिलीज हुई “एक आदमी” थी। उन्होंने नए पहचाने गए एक्टर अनुपम खेर को मौका दिया। लेकिन सही से रिलीज नहीं हो पाई। वजह थी इस फिल्म को बनाने के दौरान ही जब वो फिल्म की डबिंग सुन रहे थे तभी उनको तीसरी बार हार्ट अटैक पड़ा। और 1 जून, साल 1987 को उनका निधन हो गया।

अहमद अब्बास ने मुज़्तबी बेगम के साथ शादी की थी। लेकिन कुछ ही सालों में साल 1958 को पत्नी का निधन हो गया। जिसके बाद उन्होंने पत्नी की याद के सहारे ही 30 साल की जीवन अकेले काट दिया।

कई सारे नेशनल अवार्ड पाने के साथ साल 1969 में पद्मश्री से सम्मानित अहमद अब्बास मुंबई के फिलोमेना अपार्टमेंट्स में 40 साल से ज्यादा सौ रुपये के किराये में रहे। वो अपने निधन से पहले एक वसीयत छोड़ गए थे।

अपनी वसीयत में उन्होंने लिखा था, मेरा जनाजा यारों के कंधों पर जुहू बीच के पास बने गांधी स्मारक तक ले जाएं, बैंड-बाजे के साथ। अगर कोई खिराज-ए-अकीदत पेश करना चाहे और तकरीर करे तो उनमें सरदार जाफरी जैसा धर्मनिरपेक्ष मुसलमान हो, पारसी करंजिया हो या कोई रौशनख्याल पादरी हो।’

उन्होंने लिखा, जब मैं, मर जाऊंगा। तब भी मैं, आपके बीच में रहूंगा। अगर, मुझसे मुलाकात करनी है। तो मेरी किताबें पढ़ें। मुझे, मेरे ‘आखिरी पन्नों’ में ढ़ूढ़ें। मेरी फिल्मों में खोजें। मैं और मेरी आत्मा इनमें है। इनके जरिये मैं, आपके बीच, आपके पास हमेशा रहूंगा, आप मुझे, इनमें पाएंगे।

सुनता सब की हूं लेकिन दिल से लिखता हूं, मेरे विचार व्यक्तिगत हैं।

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