आज भले ही चांद तक जाने का सफर आसान हो। लेकिन, साल 1888 ये वो दौर ऐसा था जब साइकिल भी किसी अचंभे से कम नहीं थी। ऐसे में एक टीचर ने जब पहली बार किसी को साइकिल चलाते हुए देखा तो उनके दिमाग में एक आइडिया आया। उस आइडिया पर काम किया। साल दर साल मेहनत की। एक कंपनी की नींव रखी। जो आज हजारों करोड़ की कंपनी है।
टाटा, बिड़ला के साथ ही इन्होंने भी देश की इंडस्ट्री में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आज कहानी किर्लोस्कर ग्रुप के फाउंडर लक्ष्मणराव काशीनाथ किर्लोस्कर की। जिनकी जिंदगी किसी बॉलीवुड फिल्म की तरह ही संघर्षों से भरी है। प्रमोशन नहीं मिला था नौकरी छोड़ दी। बंजर जमीन पर कारखाना डाला। डकैतों को नौकरी दी। जिनको पहली कमाई के लिए दो साल का वक्त लगा पर हारे नहीं।
20 जून साल 1869 को मैसूर के पास बेलगांव के गुर्लहोसूर गांव में लक्ष्मणराव काशीनाथ किर्लोस्कर का जन्म हुआ। फैमिली की आर्थिक स्थिति बेहतर नहीं थी। इन्हीं सबके बीच उनका बचपन बीता। पढ़ाई में एवरेज स्टूडेंट रहे काशीनाथ ने मुंबई के जेजे स्कूल ऑफ आर्ट से ग्रेजुएशन करने के बाद 'विक्टोरिया जुबली टेक्निकल इंस्टीट्यूट' में बतौर आर्ट टीचर काम करने लगे।
लेकिन दिल में तमन्ना थी कुछ अलग करने की। वो नौकरी के बाद जो खाली वक्त बचता उसमें में एक कारखाने में जाकर काम भी किया करते। इस तरह से इन्हें मशीनों की जानकारी हुई। जिंदगी यूंही गुजर रही थी। तभी एक घटना ने उन्हें विचलित कर दिया। जिसके बाद जीवन की दिशा बदल गई। दरअसल वो जहां पढ़ाते थे। वहां पर उनकी जगह किसी अंग्रेज को प्रमोशन मिल गया। इस बात से दुखी होकर तय किया अब नौकरी नहीं करेंगे। नौकरी से इस्तीफा देकर कुछ और काम करने की तलाश करने लगे। एक दिन उन्होंने एक व्यक्ति को साइकिल चलाते हुए देखा। इनके मन साइकिल को बेचने का ख्याल आया।
साल 1888 में अपने भाई रामू अन्ना के साथ मिलकर ‘किर्लोस्कर ब्रदर्स’ नाम से साइकिल की दुकान खोली। वो साइकिल बेचने के साथ उसकी सर्विस और लोगों को साइकिल चलाना भी सिखाते। लक्ष्मणराव को शायद पहले पता रहता था की उन्हें जिंदगी में आगे क्या करना है। साइकिल का काम चल निकला था। इसके बाद उन्होंने चारा काटने की मशीन और हल बनाने वाला छोटा सा कारखाना खोला। लेकिन एक रोड़ा सामने आ गया। एक सरकारी नोटिस की वजह से बेलगांव में लगाया गया कारखाना बंद करना पड़ा। लेकिन लक्ष्मणराव रुकने वालों में से नहीं थे। मेहनत को उन्होंने अपना कर्म मान लिया था और भाग्य भी उनके साथ था। औंध रियासत के राजा जिन्होंने लक्ष्मणराव की मदद की। काम शुरू करने के लिए 10 हजार का लोन दिया। इसके बाद शुरू हुई लक्ष्मणराव की यात्रा, जो उन्हें आसमान की बुलंदियों तक ले गई।
एसवी किर्लोस्कर की किताब ‘The Man Who Made Machines’ के मुताबिक
लक्ष्मणराव लोगों की शिक्षा से ज्यादा उसकी क्षमता को महत्व देते थे। यही कारण रहा कि उन्होंने अपने 25 कर्मचारियों का चुनाव भी लीक से हट कर किया। फैक्ट्री के लिए जगह का चुनाव भी बड़ा अजीब था, उन्होंने अपने काम के लिए 32 एकड़ बंजर जमीन महाराष्ट्र में खरीदी। जहां जंगली पौधों और सांपों के सिवा कुछ भी नहीं था। लेकिन, उस बंजर जमीन को अपने सपनों के गांव में परवर्तित कर दिया और इसका नाम रखा ‘किर्लोस्कर वाड़ी’।
टाउनशिप बनाने का काम उनके भाई रामू अन्ना ने संभाला। शंभुराव जंभेकर ने इंजीनियर और ऑलराउंडर हीलिंग मैन की दोहरी भूमिका निभाई। पढ़ाई लिखाई में कमजोर स्टूडेंट केके कुलकर्णी को मैनेजर और खजांची का काम सौंपा। मंगेशराव को कलर्क और मुख्य अकाउंटेंट के रूप में चुना गया। अनंतराव फाल्निकर जो एक स्कूल ड्राप आउट थे, को कल्पनाशील इंजीनियर बनाया। तोकराम रामोशी तथा पिर्या मांग अपने समय के कुख्यात डकैत थे जिन्हें किर्लोस्कर ने किर्लोस्कर वाड़ी के भरोसेमंद सुरक्षाकर्मियों के रूप में चुना।
जमीन खरीद ली टीम बना ली। इसके बाद सबसे मुश्किल काम था किसानों को अपने भरोसे में लेना। ये कितना कठिन था इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि लक्ष्मणराव को पहला हल बेचने में दो साल लग गए।
साल दर साल लक्ष्मणराव ने अपनी बिजनेस बंगलौर, पुणे और देवास में फैलाया। धीरे-धीरे खेती और उद्योगों में काम आने वाली मशीनों के पार्ट्स बनाने लगे। साल 1934 ये वो दौर था जब वो इतने सफल हो गए कि महात्मा गांधी जिनके लिए उन्होंने लोहे का चरखा बनाया था ने उनके काम की तारीफ की। जवाहरलाल नेहरू और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी उनके प्रशंसक बन गए।
45 रुपये प्रति महीने की नौकरी करने वाले लक्ष्मणराव ने जो बिजनेस शुरू किया था वो किर्लोस्कर ग्रुप आज हजारों करोड़ों का साम्राज्य बन चुका है। इसकी 14 सिस्टर कंपनियां है जो 70 देशों में काम करती हैं। मशीनरी, मोटर, पंप, मशीन टूल्स, जेनरेटर के साथ डीजल इंजन बनाती है। 26 सितंबर साल 1956 को लक्ष्मणराव ने दुनिया को अलविदा कह दिया। लक्ष्मणराव ने राधा बाई से शादी की थी। इनके चार बेटे और एक बेटी हुईं। लक्ष्मणराव की जिंदगी की दास्तां उनके परिवार की चौथी पीढ़ी के साथ देश के कई लोगों के लिए एक नजीर है।
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