पंजाब के अंतिम महाराजा दलीप सिंह जिन्होंने सिख साम्राज्य के महाराजा बनकर आवाज बुलंद की, फिर अंग्रेज कैद कर बने 'ब्लैक प्रिंस'। जानिए उनकी दर्दनाक कहानी केबल Manchh न्यूज़ पे विस्तार से |
ये वो वक्त था, जब पंजाब को छोड़कर अंग्रेजों का पूरे भारत में कब्जा था। क्योंकि वहां शेरे-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह का राज था। वो जब तक जिए किसी की भी नजर उठाने की हिम्मत नहीं हुई।
फिर 1839 में इनके निधन के बाद से पंजाब राजघराने अंत शुरू होता है।
आज कहानी राजघराने के आखिरी महाराजा दलीप सिंह की।
जो पांच साल की उम्र में महाराजा बनें। फिर अंग्रेज कैद कर मां और मिट्टी से दूर इंग्लैंड ले गए। महारानी विक्टोरिया ने प्यार दिया। सिख से ईसाई बने।
बड़े हुए तो सच का सामना हुआ। फिर गरीबी देखी, फैमिली बिछड़ी। जो पूरी जिंदगी एशो-आराम से रहे उनका शव एक मामूली से होटल में मिला।
साल 1838, पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह और उनकी तीसरी पत्नी महारानी जिंद कौर के बेटे दलीप सिंह का जन्म हुआ। रणजीत सिंह के निधन के बाद 05 साल की उम्र में वो सिख साम्राज्य के महाराजा बनें।
उनके नाम पर उनकी मां जिंद कौर राजकाज चलातीं। पर शासन व्यवस्था कमजोर होती गई।
अराजकता के बीच साल 1849 में अंग्रेजों ने हमला कर दिया। ब्रिटिश जीते और जिंद कौर और उनके 11 साल के बेटे महाराजा दलीप सिंह को कैद कर लिया गया। जिंद कौर को कोलकाता ले गए। वहीं दलीप सिंह को अपनी मां से दूर फतेहगढ़ रखा और फिर मसूरी ले गए। इसी दौरान अंग्रेजों के हाथ कोहिनूर हीरा भी लगा।
पांच साल का वक्त गुजर गया। महाराजा दलीप सिंह को इंग्लैंड ले गए। अंग्रेज मानते थे कि महाराजा दलीप सिंह अगर भारत में रहे तो वो पंजाब पर सत्ता पाने को विद्रोह कर सकते हैं।
साल 1854 में 16 साल की उम्र में महाराजा दलीप सिंह इंग्लैंड पहुंचे। उनकी मुलाकात महारानी विक्टोरिया से कराई गई। उन्हें अंग्रेजी तौर-तरीके सिखाए गए। वक्त के साथ महाराजा खुद की भाषा, धर्म और कल्चर भूल गए। एक दिन ईसाई धर्म अपना लिया।
इतिहासकारों की मानें तो महारानी विक्टोरिया उन्हें अपना बेटा मानतीं। महाराजा के रंग की वजह से महारानी उनको प्यार से “द ब्लैक प्रिंस” कहतीं।
दलीप सिंह रॉयल फैमिली के साथ रहते। वैभव भरी जिंदगी जीते। तमाम ऐशो अराम थे। पर पल-पल उनको एक याद सताती। अपनी मां की। महाराजा भारत आकर मां से मिलना चाहते थे। उन्होंने मां को कई खत लिखे पर ये खत अंग्रेजों ने मां जिंद कौर तक पहुंचने ही नहीं दिए। फिर एक दिन उनको भारत आने की मंजूरी मिली।
साल 1861, महाराजा दलीप सिंह सबसे पहले कोलकाता पहुंचकर मां जिंद कौर मिले। वो बूढ़ी और कमजोर हो चुकीं थीं। उन दोनों की आंखों में आंसू थे। जिंद कौर, महाराजा दलीप सिंह के साथ लंदन आ गईं। जहां दो साल बाद 1863 में उनका निधन हो गया।
इन दो सालों में जिंद कौर ने बेटे दलीप सिंह को अपने इतिहास के बारे में याद दिलाया।
ऐसा कहा जाता है कि दलीप सिंह ने दोबारा सिख धर्म अपना भी लिया। महाराजा अब अपने वतन लौटना चाहते थे। पर ये इतना आसान नहीं था।
पत्नी थी, बच्चे थे। विद्रोह के स्वर उठे को अंग्रेजों ने महाराजा की पेंशन रोक दी। उनके आर्थिक हालात खराब होने लगे।
दरअसल, साल 1864 में महाराजा दलीप सिंह की शादी मिस्र की बांबा मूलर हुई। उनके तीन बेटे और तीन बेटियां हुई। साल 1887 में बांबा मूलर का निधन हो गया। महाराजा ने साल 1889 में अडा डगलस से दूसरी शादी की। इनसे दो बेटियां हुईं।
महाराजा भारत आकर साम्राज्य वापस पाना चाहते थे। समुद्री रास्ते से फैमिली को लेकर साल 1886 में भारत की ओर निकले पर अंग्रेजों ने अदन में रोक लिया।
दलीप की फैमिली लंदन लौट गईं पर महाराजा वहां नहीं जाना चाहते। वो पेरिस चले गए। वहां अपने चचेरे भाई ठाकर सिंह मिले उनसे कहा कि भारत जाएं और ग्वालियर सिंधिया घराने, पटियाला के महाराजा, फरीदकोट, जींद, कपूरथला के राजाओं से मदद मांगे। दलीप सिंह को उम्मीद थी कि उन्हें रूस से मदद मिलेगी। उन्होंने राजा अलेक्जेंडर थर्ड को पत्र लिखा। वो लिखते हैं कि ‘मैं 25 करोड़ भारतीयों को अंग्रेजों से आजादी दिलवाना चाहता हूं। भारत की कई रियासतें मेरे साथ हैं। मुझे फौज और बंदूकें चाहिए। ये मकसद में कामयाब हो सकूं। इसके लिए मैं आपसे मदद मांगता हूं।’
जार का कोई जवाब नहीं आया। ठाकर सिंह की हत्या हो गई। महाराजा दलीप सिंह निराश हो गए।
जिंदगी के आखिरी वक्त पैसे थे नहीं, इसलिए पेरिस के एक छोटे से होटल में रहे। 21 अक्टूबर 1893 को इसी होटल के कमरे में इनका शव मिला। 55 साल की उम्र में वतन जाने का सपना लिए ये दुनिया छोड़ गए। अंग्रेजों ने इनके शव को लंदन में ईसाई रीति-रिवाजों से दफना दिया।
आज भी इनके शव को भारत लाकर सिख धर्म से संस्कार से करने की मांग उठती रहती है।
Comment
0 comment