हॉकी के जादूगर' मेजर ध्यानचंद को 400 से ज्यादा अवार्ड से नवाजा गया है। लेकिन वो भारत रत्न से वंचित है। जानें उनकी उपलब्धियों की कहानी, केवल Manchh न्यूज़ पर |
साल 1936, बर्लिन में ओलंपिक गेम्स के एक हॉकी मैच में भारत ने जर्मनी को हराया। इस हार से तानाशाह हिटलर परेशान हुआ। इसी दौरान वो भारतीय टीम के कैप्टन का मुरीद भी हुआ।
हिटलर ने भारतीय कैप्टन से कहा – 'तुम जर्मनी की तरफ से खेलो, मैं तुम्हें अपने देश की सेना में एक बड़ा पद दूंगा।' पर इस खिलाड़ी ने सहजता से मना कर दिया। अफवाह थी कि इस खिलाड़ी हॉकी स्टिक में चुंबक या फिर गोंद लगा है जिस वजह से गेंद स्टिक से चिपकी रहती है। शक हुआ तो स्टिक तोड़ी गई।
ये वो खिलाड़ी थे। जिन्होंने भारतीय हॉकी को दुनिया में सम्मान दिलाया। चांद की रोशनी में प्रैक्टिस करते तो नाम ‘चांद’ पड़ गया। जिनकी जिंदगी उतार चढ़ाव से भरी पड़ी है। एक वक्त ऐसा भी आया जब मैच देखने के लिए खुद लाइन में खड़े होकर काउंटर से टिकट खरीदना पड़ा।
आज कहानी ‘हॉकी के जादूगर’ मेजर ध्यानचंद की। जिन्होंने आखिरी वक्त आर्थिक तंगी देखी। एक सपना था जिसके पूरे होने की आस लिए ये महान खिलाड़ी एक दिन दुनिया छोड़ गए। जिसे दुनिया में करीब 55 देशों के 400 से ज्यादा अवार्ड मिले, पर ये खिलाड़ी अभी भारत रत्न से वंचित है।
ब्रिटिश इंडियन आर्मी में सूबेदार समेश्वर सिंह कुशवाहा पत्नी शारदा देवी के साथ प्रयागराज में रहते। इन्हीं के घर 29 अगस्त साल 1905 को ध्यान सिंह कुशवाहा का जन्म हुआ। विक्टोरिया कॉलेज से ग्रेजुएशन ध्यान सिंह को बचपन में हॉकी नहीं कुश्ती का शौक था। साल 1922 में जब 16-17 साल की उम्र में ही ब्रिटिश आर्मी ज्वाइन की। यहां उनकी मुलाकात के रेजिमेंट के सूबेदार बाले तिवारी से हुई। बाले तिवारी ने ही उन्हें हॉकी खेलने के लिए कहा।
फिर ध्यान सिंह पर हॉकी का इतना जूनून चढ़ा की वो दिन के उझाले से लेकर रात को चांद की रोशनी में हॉकी ही खेलते। ये देखकर बाले तिवारी ध्यान सिंह को चांद कहते है। इसी के बाद ध्यान सिंह ध्यानचंद कहलाने लगे।
साल 1922 से 1926 तक ब्रिटिश आर्मी की तरफ से खेलते। फिर साल 1926 में न्यूजीलैंड में अपना पहला मैच खेला। ध्यानचंद की हॉकी स्टिक खेल के मैदान में जादू की छड़ी जैसी चलती थी, और एक के बाद एक मैच में भारत विनर बन रहा था। साल 1935, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के दौरे पर ध्यानचंद ने कुल 48 मैचों में 201 गोल किए।
ये वो वक्त था जब ध्यानचंद के शानदार खेल की वजह से साल 1928 और 1932 में भारत लगातार दो बार ओलंपिक में गोल्ड मेडल जीत चुका था।
साल 1936 के ओलंपिक के लिए ध्यानचंद को टीम का कप्तान बनाया गया।
मेजर ध्यानचंद अपनी बायोग्राफी ‘गोल’ में लिखते हैं कि ‘17 जुलाई 1936 को जर्मनी के साथ प्रैक्टिस मैच में हम हार गए। मैं दुखी था। 15 अगस्त को जर्मनी के साथ मुकाबले का फिर से मौका मिला। ओलंपिक के इस फाइनल मुकाबले में हमारी टीम ने शानदार प्रदर्शन किया और भारत विजेता बना।’
हॉलैंड में ध्यानचंद की हॉकी स्टिक को तोड़ा गया। वजह अफवाह थी, उनकी हॉकी स्टिक में चुंबक है जिससे गेंद स्टिक से चिपकी रहती। पर जांच में कुछ नहीं निकला।
साल 1936 में ध्यानचंद की शादी जानकी देवी से हो गई। इनके 7 बेटे और 4 बेटियां हैं। ध्यानचंद के एक बेटे अशोक सिंह कुशवाहा भी अपने पिता की तरह हॉकी के बड़े मशहूर खिलाड़ी बने।
साल 1956 में ये सेना से रिटायर हुए। इन्हें पद्म भूषण मिला है। साल 2012 से हर साल 29 अगस्त को उनके जन्मदिन पर राष्ट्रीय खेल दिवस मनाया जाता है। इनके नाम से भारतीय खिलाड़ियों को सम्मान दिया जाता है।
मेजर ध्यानचंद भारत रत्न से अभी वंचित है। इसके लिए बहुत अर्से से मांग हो रही है। ये मांग तब और तेज हुई जब से महान बल्लेबाज सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न से सम्मानित किया गया। मेजर ध्यानचंद अपने जीवन के आखिरी पड़ाव में वो पैसों की तंगी से गुजरे। लिवर के कैंसर से लड़ते-लड़ते साल 1979 में 74 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया।
ध्यानचंद ने अपनी बीमारी के आखिरी दिनों में अपने बेटे अशोक से कहा था कि ‘मेरा अंत में एक ही सपना हैं, भारतीय हॉकी टीम फिर एक बार अपने स्वर्णिम युग में पहुंचे। भले ही मेरे बूढ़े शरीर में अब दम नहीं रहा हो, लेकिन मेरा सपना है कि मैं भारत की हॉकी टीम को सम्मान की स्थिति में देखूं। ताकि में खुद को जवान महसूस कर सकूं।’
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