Milkha Singh : संघर्षों की नींव पर सफलता की गाथा

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साल 1960। पाकिस्तान ने चुनौती दी। भारत के महानतम एथलीट को। कहां कि वो पाकिस्तान की सरजमीं में आकर पाकिस्तान के बेस्ट एथलीट अब्दुल खालिद के साथ मुकाबला करें। लेकिन भारत के इस एथलीट ने पाकिस्तान जाने से मना कर दिया। इसके पीछे चुनौती का डर नहीं था वजह थी उनकी जिंदगी के अतीत में छुपा एक भयानक दर्द। जो उनको पाकिस्तान में मिला था। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के समझाने पर वो पाकिस्तान गए। और वहां जो हुआ उनके बाद पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल अयूब खां भी हैरान होकर बोले –आज तुम, दौड़े नहीं, उड़े हो। मैं, तुम्हें फ्लाइंग सिख का खिताब देता हूं।

आज कहानी पूरी दुनिया में फ्लाइंग सिख के नाम से मशहूर मिल्खा सिंह की। जो जिंदगी भर दौड़ते रहे। नाम कमाने और पैसा कमाने के लिए नहीं बल्कि बचपन में खुद की जान बचाने के लिए। एक गिलास दूध के लिए। पढ़ने के लिए। रोजा-रोटी के लिए। जीतने के लिए। अतीत में छिपे उस भयानक दर्द से उभरने के लिए दौड़े जब बचपन में उनके परिवार को उनकी आंखों के सामने पाकिस्तान में कत्ल कर दिया था।

पाकिस्तान के लायलपुर के गांव गोविंदपुरा में 20 नवंबर, साल 1929 को मिल्खा सिंह का जन्म हुआ। पिता किसान थे जो एक सिख राठौर फैमिली से ताल्लुक रखते थे। मिल्खा सिंह अपने गांव से 10 किमी दूर स्कूल जाते। रास्ता लंबा था कोई साधन नहीं था तो कभी-कभी पढ़ने के लिए दौड़ कर जाते। जब मिल्खा 18 साल के करीब हुए तो भारत और पाकिस्तान का बंटवारा हो गया। बहुत से लोग पाकिस्तान से भारत और भारत से पाकिस्तान अपनी जान बचाने को भागे।

एक इंटरव्यू में मिल्खा सिंह ने बताया था कि तब पिताजी ने फैसला लिया कि, अपनी धरती छोड़कर नहीं जाएंगे। कुछ दिनों के बाद माता-पिता, एक भाई और दो बहनों को मेरे सामने ही जलाकर मार दिया गया। चारों तरफ कत्लेआम था। हालात बहुत खराब थे। किसी तरह से मैं अपनी जान बचाने के लिए वहां से भागा। ट्रेन में महिला बोगी की सीट के नीचे छिपकर, दिल्ली पहुंचा। पुरानी दिल्ली के स्टेशन पर वक्त बिताया। फुटपाथ पर बने ढाबों में बर्तन साफ किए वहीं पर रात बिताई।’

ऐसे ही एक दिन रिफ्यूजी कैंप में उनकी मुलाकात अपनी बड़ी बहन से हो गई। वो अपनी बहन के साथ लाल किला के रिफ्यूजी कैंप में रहने लगे। वक्त गुजरा और मिल्खा सिंह ने सेना में भर्ती होने का फैसला किया। तीन बार रिजेक्ट हुए लेकिन हार नहीं मानी और चौथी कोशिश में साल 1952 में वो सेना में भर्ती हो गए।

एक इंटरव्यू में मिल्खा सिंह ने बताया था कि मैंने आर्मी में स्पोर्ट्स कोटा चुना। क्योंकि वहां खाना अच्छा और दूध पीने के लिए मिलाता था। एक दिन एक सीनियर ने चैलेंज किया तो मैंने रेस में हिस्सा लिया। इसके बाद मुझे सेना में एथलीट की स्पेशल ट्रेनिंग के लिए चुना गया।

मिल्खा सिंह टफ ट्रेनिंग करते थे। कई बार उनके पैरों से खून भी आने लगता था। उसी दौरान पटियाला में एक चैम्पियनशिप हुई। जहां 400 मीटर की दौड़ 47.9 सेकेंड में पूरी कर रिकॉर्ड बनाया। इस परफॉर्मेंस के बाद के बाद। मिल्खा सिंह को साल 1956 में मेलबर्न ओलंपिक में जाने का मौका मिला। वहां वो कुछ खास नहीं कर पर पाए। लेकिन आत्मविश्वास बढ़ गया। मेलबर्न में हार के बाद, उन्होंने ट्रेनिंग का टाइम और फोकस बढ़ा दिया।

एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया था कि मैने 1960 में रोम ओलंपिक में जाने से पहले, 80 रेसों में हिस्सा लिया। जिनमें से 77 रेस, मैंने जीती। इसके बाद दुनिया ने उम्मीद लगा ली। रोम ओलंपिक में 400 मीटर की दौड़ में, अगर कोई जीतेगा। तो वो भारत के मिल्खा सिंह ही होंगे।’

लेकिन ये सपना अधूरा रह गया। मिल्खा सिंह रोम ओलंपिक की 400 मीटर की इस रेस में चौथे नंबर पर रहे पर एक रिकॉर्ड बनाया। 45.9 सेकंड में रेस पूरी करने का। जिसे तोड़ने में सालों लग गए।

साल 1958 में मिल्खा सिंह ने शानदार प्रदर्शन किया। उन्होंने एशियन गेम्स में 200 और 400 मीटर दौड़ में, गोल्ड मेडल अपने नाम किए।

1958 में ही, उन्होंने कॉमनवेल्थ गेम की 400 मीटर में गोल्ड मेडल जीता। उन्होंने यहां पर ‘एशिया का तूफान’ नाम से मशहूर पाकिस्तान के अब्दुल खालिद को हराया।

ये वही अब्दुल खालिद थे जिन्होंने मिल्खा सिंह को लाहौर में रेस करने का चैलेंज दिया था। लेकिन मिल्खा सिंह भारत-पाकिस्तान बंटवारे के बाद, हुए कत्लेआम और दंगों से दुखी थे। मिल्खा सिंह ने इस चैलेंज को ठुकरा दिया। अगले दिन अखबार में, पाकिस्तान न जाने की खबर सुर्खियां बन गई। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने मिल्खा को बुलाया। उन्हें समझाया कि वक्त का मरहम, हर घाव भर देता है। आज देश के लिए, तुम इस प्रतियोगिता में हिस्सा लो। जवाहर लाल नेहरू के कहने पर वो पाकिस्तान पहुंचे। उन्हें खुली जीप में लाहौर ले जाया गया। जहां रास्ते भर सड़क के दोनों तरफ अपने हाथों में भारत और पाकिस्तान के झंडे लिए सैकड़ों लोग जमी थे।

अब्दुल खालिक कॉमनवेल्थ और टोक्यो ओलंपिक में मिली हार का बदला लेना चाहते थे। फिर रेस में जो हुआ। वो इतिहास बन गया है। मिल्खा सिंह ऐसे दौड़े कि उड़ रहे हो। अब्दुल खालिद जिंदाबाद के नारे लगा रहे लोग खामोश हो गए। उनके आसपास कोई भी नहीं था अब्दुल खालिद उनसे कई मीटर पीछे थे। पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल अयूब खां ने मेडल देते वक्त मिल्खा सिंह को नया नाम दिया - फ्लाइंग सिख।

पद्मश्री अवार्ड से सम्मानित मिल्खा सिंह को जब 2001 में अर्जुन अवार्ड की पेशकश की गई। तो उन्होंने ये कह कर अवार्ड ठुकरा दिया। कि ये ऐसा होगा जैसे किसी को मास्टर डिग्री के बाद एसएससी सर्टिफिकेट दिया जा रहा हो।

1960 में मिल्खा सिंह पंजाब सरकार की ओर से स्पोर्ट्स डिपार्टमेंट के डिप्टी डायरेक्टर बनाए गए। इसी साल उनकी मुलाकात, निर्मल कौर से हुई। निर्मल इंटरनेशनल लेवल की वॉलीबॉल प्लेयर थीं। साल 1962 में मिल्खा सिंह ने निर्मल कौर से शादी की। मिल्खा सिंह के एक बेटा और तीन बेटियां है। इनके बड़े बेटे जीव मिल्खा सिंह गोल्फ प्लेयर हैं।

साल 2013 रिलीज हुई डायरेक्टर ओम प्रकाश मेहरा की फिल्म ‘भाग मिल्खा भाग’। मिल्खा सिंह के लाइफ पर ही बेस्ड है। मिल्खा सिंह पर एक किताब - Race of my Life भी लिखी गई है। जिसे मिल्खा सिंह और उनकी बेटी ने मिलकर लिखा।

18 जून 2021 को 91 साल की उम्र में मिल्खा सिंह का निधन हो गया। अपनी जीत के सभी मेडल देश को समर्पित करने वाले मिल्खा सिंह की पत्नी निर्मल कौर की ख्वाहिश थी कि मिल्खा सिंह को भारत रत्न मिले। लेकिन उनकी ये ख्वाहिश अधूरी रह गई। मिल्खा सिंह के निधन के सिर्फ पांच दिन पहले ही 13 जून को उनका भी निधन हो गया था।

सुनता सब की हूं लेकिन दिल से लिखता हूं, मेरे विचार व्यक्तिगत हैं।

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