भारत रत्न प्रणब मुखर्जी इंदिरा गांधी के दौर में कांग्रेस से जुड़े और कांग्रेस में जब-जब मुसीबत आई तब ये संकटमोचक बने। कई अहम मंत्रालय संभाले।
साल - 2018, जगह - नागपुर में आरएसएस का मुख्यालय भारत के पूर्व राष्ट्रपति भारत रत्न प्रणब मुखर्जी ने कभी न भूलने वाला भाषण दिया। जो आज भी तटस्थ है। उन्होंने कहा था कि ''भारत की राष्ट्रीयता एक भाषा और एक धर्म में नहीं है। हम वसुधैव कुटुंबकम में भरोसा करने वाले लोग हैं। भारत के लोग 122 से ज़्यादा भाषा और 1600 से ज्यादा बोलियां बोलते हैं। यहां सात बड़े धर्म के अनुयायी हैं और सभी एक व्यवस्था, एक झंडा और एक भारतीय पहचान के तले रहते हैं।''
''हम सहमत हो सकते हैं, असहमत हो सकते हैं, लेकिन हम वैचारिक विविधता को दबा नहीं सकते। 50 सालों से ज़्यादा के सार्वजनिक जीवन बिताने के बाद मैं कह रहा हूं कि, बहुलतावाद, सहिष्णुता, मिलीजुली संस्कृति, बहुभाषिकता ही हमारे देश की आत्मा है।''
आज कहानी प्रणब मुखर्जी की, जो इंदिरा गांधी के दौर में कांग्रेस से जुड़े और कांग्रेस में जब-जब मुसीबत आई तब ये संकटमोचक बने। कई अहम मंत्रालय संभाले। चाहे किसी भी पार्टी का सदस्य हो हर कोई इनका सम्मान करता।
पर जिंदगी में ऐसा वक्त भी आया जब इनकी अनदेखी गई। कांग्रेस से निकाल दिया गया। इन्हें उम्र भर एक मलाल भी रहा जो इन्हें हमेशा सतता रहा।
पश्चिम बंगाल के जिले वीरभूमि के मिराती गांव में फ्रीडम फाइटर कामदा किंकर मुखर्जी अपनी पत्नी राजलक्ष्मी के साथ रहते। कामदा किंकर मुखर्जी कांग्रेस के बड़े लीडर थे जो साल 1952 से 1964 तक पश्चिम बंगाल विधान परिषद के सदस्य रहे।
इन्हीं के घर 11 दिसंबर साल 1935 को प्रणब मुखर्जी का जन्म हुआ। शुरुआती पढ़ाई के बाद कोलकाता यूनिवर्सिटी से पॉलिटिकल साइंस में पोस्ट ग्रेजुएशन और फिर कानून की डिग्री ली।
पढ़ाई पूरी हुई तो कोलकाता के पोस्ट एंड टेलिग्राफ डिपार्टमेंट में क्लर्क का काम किया। ये नौकरी छोड़ साल 1963 में विद्यानगर कॉलेज में पॉलिटिकल साइंस पढ़ाने लगे।
फिर कुछ वक्त के लिए बतौर जर्नलिस्ट 'देशेर डाक' न्यूज पेपर से जुड़े। साल 1969, करीब 35 साल की उम्र में राजनीति में एंट्री ली।
दरअसल, साल 1969, मिदनापुर में उपचुनाव हो रहे थे। कांग्रेस की टिकट पर खड़े वीके कृष्ण मेनन के चुनाव प्रचार की जिम्मेदारी प्रणब मुखर्जी ने संभाली। वीके कृष्ण मेनन विजेता बने तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी प्रणब मुखर्जी से प्रभावित हुईं। उन्होंने प्रणब मुखर्जी को कांग्रेस की तरफ से राज्यसभा में मनोनीत कर दिया।
इसके बाद अगले 45 सालों के पॉलिटिकल करियर में प्रणब मुखर्जी पांच बार राज्यसभा, दो बार लोकसभा सदस्य रहे। विदेश, रक्षा और वित्त जैसे कई बड़े मंत्रालय संभाले। देश का सात बार बजट पेश किया। भारतीय बैंकों की समितियों से लेकर वर्ल्ड बैंक के बोर्ड के सदस्य भी रहे। इसके अलावा और भी कई सारे अहम जिम्मेदारियां इन्हें मिलीं।
इसके बाद प्रणब मुखर्जी साल 2012 में देश के 13वें राष्ट्रपति बने। इस दौरान उन्होंने 30 से ज्यादा दया याचिका खारिज कीं।
जिसमें याकूब मेमन, अफजल गुरु और अजमल कसाब की फांसी रोकने की दया याचिका भी शामिल थीं। इंडियन पॉलिटिक्स में ये उन गिने-चुने नेताओं में से हैं, जिनका सम्मान सभी दलों के सदस्य करते हैं। लोग उन्हें प्यार से प्रणब दा बुलाते। 2008 में पद्म विभूषण और 2019 में भारत रत्न से सम्मानित प्रणब मुखर्जी के कद को शायद ही कोई नेता छू पाए।
पर इनको एक मलाल था जो जिदंगी भर रहा और जिसका खुलकर कभी इजहार नहीं किया। देश का प्रधानमंत्री न बन पाने का।
प्रणब मुखर्जी साल 1984 और 2004 में पीएम पद के दावेदार माने गए थे और वो उस वक्त कांग्रेस के सबसे कद्दावर नेताओं में से एक थे।
पर वो पीएम क्यों नहीं बन पाए ये समझने के लिए फिर इनकी जिंदगी को पलटना पड़ेगा।
साल 1969 के बाद अगले 15 सालों में इंदिरा गांधी की निगरानी में प्रणब मुखर्जी का सियासी सफर तेजी से आगे निकला। लेकिन, फिर उनके सितारे गर्दिश में आ गए। साल 1984 में इंदिरा गांधी के निधन के वक्त लगा की अगले प्रधानमंत्री प्रणब मुखर्जी बनेंगे पर राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने और उनके मंत्रिमंडल तक में भी प्रणब मुखर्जी को जगह तक नहीं मिली।
प्रणब मुखर्जी अपनी किताब "द टर्बुलेंट इयर्स’’ में लिखते हैं कि "राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में जगह न मिले, ये बात मेरे दिमाग में ही नहीं थी। जब मैंने ये खबर सुनी, तो मैं स्तब्ध रह गया। मुझे यकीन तक नहीं हुआ।"
यहां तक की प्रणब मुखर्जी अगले छह साल के लिए पार्टी से निकाल दिए गए।
वो किताब में लिखते हैं, "राजीव गांधी ने गलतियां की और मैंने भी कीं। उन्होंने दूसरों को अपने ऊपर प्रभाव डालने दिया, दूसरों ने मेरे खिलाफ कान भरे। मैं भी अपनी निराशा पर काबू नहीं रख पाया।"
इसके बाद जब नरसिम्हा राव पीएम बने तो फिर से प्रणब मुखर्जी की किस्मत बदली।
साल 2004, आम चुनाव में कांग्रेस विजेता बनीं। खबर फैली की सोनिया गांधी प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहतीं। तो प्रधानमंत्री पद के लिए प्रणब मुखर्जी का नाम फिर से सामने आने लगा।
इस बात का जिक्र वो अपनी किताब में करते हैं। वो लिखते हैं कि "प्रचलित अपेक्षा ये थी कि, सोनिया गांधी के मना करने के बाद मैं प्रधानमंत्री के लिए अगली पसंद बनूंगा।"
लेकिन ये हो न सका और उनसे जुनियर मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाया गया। और उनकी हैसियत सरकार में दूसरे नंबर के नेता के रूप में रही।
प्रणब मुखर्जी जब तक कांग्रेस में रहे तबतक पार्टी के संकटमोचक बने रहे। कहा जाता है कि सोनिया गांधी को कोई भी फैसला लेना होता वो इनकी सलाह जरूर लेतीं।
प्रधानमंत्री न बन पाने के बाद वो अक्सर मजाक करते थे कि ‘मैं हमेशा पीएम रहूंगा।’ उनका कहना का मतलब था कि पी से प्रणब और एम से मुखर्जी।
प्रणब मुखर्जी ने 22 साल की उम्र में 13 जुलाई, साल 1957 को कोलकाता की ही रहने वालीं सुव्रा मुखर्जी से शादी की। इनके दो बेटे अभिषेक, अभिजीत और एक बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी हुए।
प्रणब मुखर्जी सक्रिय राजनीति में रहते हुए भी हर साल दुर्गा पूजा में अपने गांव मिराती जरूर जाते। उन्हें सिगार पीना, डायरी लिखना, खूब किताबें पढ़ना, बागवानी करना और संगीत सुनना बेहद पसंद था। प्रणब मुखर्जी भी जिंदगी के आखिरी दिनों में ब्रेन के ऑपरेशन के लिए अस्पताल में भर्ती हुए। जहां हुए कोरोना टेस्ट में वो पॉजिटिव पाए गए।
31 अगस्त साल 2020, भारत का ये रत्न 85 साल की उम्र में दुनिया छोड़कर चला गया।
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