बॉलीवुड के दिग्गज एक्टर देव आनंद उनके रिश्ते, उनके दोस्त, उनके तीन-तीन इश्क, उनकी लाइफ स्टाइल के बारे में सुनेंगे तो आप भी हैरानी में पढ़ जाएंगे। आखिर वो शर्ट की ऊपर वाली बटन क्यों बंद रखते थे। वो हमेशा झुक कर ही क्यों चलते।
‘आग में फेंक दो, मैं जलूंगा नहीं। तलवार से वार करो, मैं कटूंगा नहीं। तुम अहंकार हो, तुमको मरना होगा। मैं आत्मा हूं, अमर हूं। मौत एक ख्याल है। जैसे जिंदगी एक ख्याल है। न सुख है। न दुख है। न दीन है। न दुनिया। न इंसान न भगवान। सिर्फ मैं हूं, मैं हूं, मैं, सिर्फ मैं।’
साल 1965 में अपने वक्त से कहीं आगे बनीं फिल्म ‘गाइड’ का ये डायलाग देव आनंद की पूरी जिंदगी को भी बयां करता है।
देव आनंद ने अपनी ऑटोबायोग्राफी लिखी - रोमांसिंग विद द लाइफ - जिसमें इनकी जिंदगी में के एक नहीं ढेरों किस्से हैं। उनकी स्माइल, उनका चार्म, उनकी एक्टिंग, उनका ओहरा, उनकी अदा का जादू आज भी है। जिंदगी से रोमांस करने वाले इस एक्टर पर महिलाओं की तीन पीढ़ियां फिदा थीं।
साल 1958 की फिल्म 'काला पानी' में देव आनंद सफेद शर्ट पर काला कोट पहने नजर आए थे तो वो इतने खूबसूरत लगे कि इस लुक पर लड़कियों के साथ- साथ लड़के भी उनके फैन हो गए। जब भी वो सफेद शर्ट के ऊपर काले रंग का कोट पहनते, उन्हें देखने के लिए भारी भीड़ लग जाती। यहां तक लड़कियां छत से छलांग लगाने को तैयार थीं। फिर कोर्ट को दखल देना पड़ा और देव आनंद पर काला कोट पहनने पर बैन लगा दिया।
आज कहानी सदाबहार हीरो देव आनंद की। आखिर वो शर्ट की ऊपर वाली बटन क्यों बंद रखते थे। वो हमेशा झुक कर ही क्यों चलते। जिसे करोड़ों लोग प्यार करते, वो कई साल अकेले रहे और आखिर में जब वो दुनिया से गए तो वो अपना चेहरा क्यों नहीं दिखाना चाहते थे। उनके रिश्ते, उनके दोस्त, उनके तीन-तीन इश्क, उनकी लाइफ स्टाइल के बारे में सुनेंगे तो आप भी हैरानी में पढ़ जाएंगे।
पंजाब के गुरदासपुर का गांव शंकरगढ़, ये हिस्सा जो बंटवारे के बाद पाकिस्तान में चला गया। यहीं पर रहते पिशोरी लाल आनंद जो गुरदासपुर डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में वकील थे। पत्नी थी और 09 बच्चे। इन 09 में से 04 की कम ऐज में डेथ हो गई। जो बचे उसमें से एक बेटी थीं शीला कांता कपूर जो फिल्म डायरेक्टर शेखर कपूर की मां हैं। चार बेटे थे - मनमोहन आनंद - जो पिता की तरह वकील बने। चेतन आनंद और विजय आनंद, फिल्म एक्टर और डायरेक्टर बने।
26 सितंबर साल 1923 को जन्में धर्म देव आनंद यानी देव आनंद। स्कूलिंग डलहौजी से की। कॉलेज की पढ़ाई लाहौर और धर्मशाला से। इंग्लिश लिटरेचर में बीए करने के बाद विदेश जाकर आगे की पढ़ाई करना चाहते पर जा न सके। दरअसल आर्थिक हालात अच्छे ऐसे नहीं थे। परिवार बड़ा था। पिता पिशोरी लाल आनंद पर और बच्चों की जिम्मेदारी थी। देव आनंद ने फिर इंडियन नेवी ज्वाइन करने की सोची पर रिजेक्शन मिला।
इन सब न उम्मीदी के बीच मां सहारा थीं पर एक दिन वो भी गुजर गईं। जिसके बाद वो टूट से गए, पर मां के आखिरी शब्द याद रहे। जो उनकी जिंदगी बदलने की वजह बना।
एक इंटरव्यू में देव आनंद ने बताया था कि ‘मां अस्पताल में थीं। मैं दिन-रात उनकी सेवा करता। सुबह 4 बजे उठकर उनके लिए बकरी का दूध लाता। दवा लेने कई किमी का सफर तय करता। मैं उन्हें खोना नहीं चाहता था। अफसोस, ये हो न सका। वो मुझे छोड़कर चली गई। जब मां आखिरी सांसें ले रही थीं, तब उन्होंने मेरा हाथ थामकर पास खड़े पिताजी से कहा - 'सुनो जी, मेरे शब्द याद रखना, देखना मेरा बेटा, एक न एक दिन जरूर कुछ बड़ा करेगा।'
ये बात देव आनंद के दिलो-दिमाग में बस गई। फिर वो किया जो करना चाहते थे दरअसल वो बचपन से ही फिल्में देखने के शौकिन थे और उनके फेवरेट हीरो थे अशोक कुमार। उन्होंने सोचा अब मैं फिल्मों में काम करुंगा। जेब में रखे 30 रुपये और चल दिए मुंबई। पर दिन बीते, हफ्ते बीते, महीने बीते। काम नहीं मिला। भूख लगी तो बरसों इकट्ठा किया हुया अपना स्टाम्प कलेक्शन का एल्बम बेच दिया। इन पैसे के सहारे कुछ दिन मुंबई में और टिके। वो वापस गांव नहीं जाना था।
क्लर्क की नौकरी की पर ये नौकरी को छोड़ दी। फिर ब्रिटिश आर्मी के सेंसर ऑफिस में चिट्ठियां पढ़ने का काम मिला। वक्त गुजरा उनको लगा कि ‘मैं एक सरकारी बाबू बन कर रह गया हूं। मैंने अपने सपनों को कहीं पीछे छोड़ दिया है।’
फिर एक खत से जिसे पढ़कर उनकी जिंदगी बदली। उस खत में एक अफसर ने अपनी पत्नी को लिखा था कि ‘काश, मैं अभी ये नौकरी छोड़ सकता तो सीधे तुम्हारे पास आता।’ खत की इस लाइन को पढ़कर आराम की नौकरी छोड़ दी। एक बार फिर से चल दिए सपनों को पूरा करने।
साल 1946 की फिल्म ‘हम एक हैं’ बतौर हीरो वो पहली बार नजर आए। और ये मौका उन्हें किस्मत से मिला। उन्हें किसी से पता चला की ‘प्रभात फिल्म कंपनी’ एक नए चेहरे की तलाश कर रहा है। वो फिल्म कंपनी के मालिक बाबूराव पाई और फिल्म डायरेक्टर पीएल संतोषी से मिले। दोनों को देव आनंद पसंद आए। फिल्म तो खास कमाल नहीं कर पाई पर देव आनंद का फिल्मी सफर शुरू हो गया।
साल 1948 की 'जिद्दी' से वो बतौर एक्टर फिल्म इंडस्ट्री में जम गए। अपने छह दशक के करियर में करीब 100 से ज्यादा फिल्में। नवकेतन फिल्म प्रोडक्शन के बैनर तले साल 1950 की फिल्म ‘अफसर’ से बतौर प्रोड्यूसर अपना पहला काम किया। साल 1970 की ‘प्रेम पुजारी’ से वो फिल्मों का डायरेक्शन भी करने लगे।
फिल्मों में धोती-कुर्ता पहनकर पेश हुए देव आनंद ने बाद में विलायती अंदाज अपनाया और अपनी रंगीन तबीयत के अनुकूल गले में स्कार्फ बांधा। वो शर्ट की सबसे ऊपर वाली बटन तक बंद रखते। यही उनका स्टाइल बन गया। दरअसल उन्हें अपनी बॉडी को लेकर कॉम्पलेक्स था। उन्हें लगता था कि उनका चेहरा तो ठीक है पर मसल्स बिल्कुल नहीं है। इस वजह से वो अपनी बॉडी कवर ही रखते।
गर्दन झुकाकर बात करना, झुककर चलना ये उनकी अदा बन गई। लोग उनकी इसी अंदाज के दीवाने हो गए। देव आनंद ने एक इंटरव्यू में कहा था कि ‘बचपन में झुक कर चलने और बात करने की उनकी आदत ही फिल्मों में आने के बाद उनकी पहचान और आत्मविश्वास बन गई।’
दुनिया भर के कई अवार्ड से सम्मानित देव आनंद साल 2001 में पद्म भूषण और साल 2002 में दादा साहेब फाल्के से नवाजे गए।
रोमांस के बादशाह देव आनंद को अपने जीवन में तीन बार इश्क हुआ। साल 1948 की फिल्म ‘विद्या’ में बौतर हीरो थे देव आनंद और हीरोइन थीं सुरैया। उन दिनों सुरैया कामयाब एक्ट्रेस थीं और देव आनंद इंडस्ट्री में नए।
फिल्म के सेट पर दोनों मिले। इसके बाद दोनों के गहरे होते गए। देव आनंद सुरैया को नोजी बुलाते और सुरैया उनको स्टीव। लेकिन इस प्यार की राह आसान नहीं थी। सुरैया मुस्लिम थीं, मोहब्बत में मजहब आड़े आ गया। सुरैया की नानी ने देव साहब को अपनाने से इंकार कर दिया। दोनों अलग हो गए। सुरैया ने तो ताउम्र शादी नहीं की। देव आनंद भी खूब रोए।
इसके बाद देव आनंद की मुलाकात साल 1951 फिल्म बाजी, 1953 की टैक्सी ड्राइवर में साथ काम करने वालीं एक्ट्रेस कल्पना कार्तिक से हुई। कल्पना और देव आनंद एक दुसरे के नजदीक आए। जिसके बाद साल 1954 में शादी कर ली। दो बेटे भी हुए पर ये रिश्ता ज्यादा चल न सका और दोनों अलग हो गए।
इसके बाद देव साहब को तीसरी बार ज़ीनत अमान से मोहब्बत हुई। साल 1971 की फिल्म हरे रामा हरे कृष्णा और साल 1972 की फिल्म हीरा-पन्ना में एक साथ काम करने के बाद देव आनंद को लगने लगा कि वो जीनत अमान से प्यार करने लगे हैं। पर उसी दौरान पता चला कि जीनत अमान और राज कपूर के बीच नजदीकियां हैं। इसके बाद उन्होंने अपने कदम पीछे खींच लिए। और फिर जब तक जिए अकेले रहे।
देव आनंद का अंदाज बड़ा ही बेबाक था वो किसी से नहीं डरते। चाहे जब 1975 में इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगा रखी थी। तब इसका विरोध करने वालों में देव आनंद भी थे। उन्होंने रैली भी निकाली। बाद में उन्होंने ‘नेशनल पार्टी’ नाम से पार्टी भी बनाई।
फरवरी साल 1999 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान की यात्रा की थी, जब वह बस में बैठकर वाघा बॉर्डर पार कर लाहौर पहुंचे थे। अटल जी ने नवाज शरीफ से पूछा कि भारत से आपके लिए क्या लाऊं? तो नवाज शरीफ ने कहा कि 'हो सके तो देव आनंद के ले आइये।' देव आनंद और नवाज शरीफ दोनों एक दूसरे के गहरे दोस्त थे।
देव साहब बड़ी उम्र तक युवा ही नज़र आते रहे। उम्र का उनपर कभी असर हुआ ही नहीं। वो आखिरी सांस तक फिट और हेल्दी रहे। वो कहते थे, 'मैं एक एक्टर हूं, एक्टर के लिए जरूरी है कि वो प्रेजेंटेबल हो। इसके लिए सिर्फ अनुशासन की जरूरत होती है।'
वो योगी की तरह रहते। सादा खाना ही खाते। शराब, सिगरेट को हाथ तक नहीं लगाते। जब तक जिए काम करते रहे। उम्र 88 साल थी। तब वो लंदन में थे। हरे रामा और हरे कृष्णा फिल्म का सीक्वल बनाने के लिए स्क्रिप्ट लिख रहे थे।
3 दिसंबर साल 2011 दिल का दौरा पड़ा और वो दुनिया छोड़कर चले गए। जाते जाते देव आनंद का चेहरा किसी ने नहीं देखा। उनका कहना था कि दुनिया उसी रूप में याद रखे जिससे उन चाहने वालों ने प्यार किया।
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