मुलायम सिंह यादव का कद छोटा था पर व्यक्तित्व बहुत बड़ा। पहलवान से शिक्षक बनें और फिर शिक्षक से नेताजी। ल ले लिया। हर कोई इस ‘धरती पुत्र’ से प्यार करता।
11 अक्टूबर, साल 2022, जब समाजवादी पार्टी का 160 फीट की हाइट पर लगा विशाल झंडा, जो यूपी के इटावा जिले के सैफई में हवा में लहराता है, उसे पहली बार झुकाया गया। ये सम्मान था, सैफई के सबसे होनहार बेटे मुलायम सिंह यादव के लिए, जिनका एक दिन पहले यानी 10 अक्टूबर, साल 2022 को निधन हो गया था।
वो मुलायम सिंह यादव जिनका कद छोटा था पर व्यक्तित्व बहुत बड़ा। जो पहलवान से शिक्षक बने और फिर शिक्षक से नेताजी। अपनी भाषा, अपने वेश, अपने विषय, अपने समाज और अपने गांव को सत्ता की कालीन पर बिछा देने की ताकत रखते।
वो सरल भी थे, सहज भी। कभी भी किसी से फोन कर हालचाल ले लिया। हर कोई इस धरती पुत्र से प्यार करता। पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ने इनके नेतृत्व गुणों को देखा तो "छोटा नेपोलियन" कहा।
10 बार विधायक, सात बार सांसद और तीन बार यूपी के सीएम रहे मुलायम सिंह यादव की जिंदगी की किताब पढ़ेंगे जिसमें कुछ सफेद अध्याय तो कुछ काले अध्याय मिलेंगे।
22 नवंबर साल 1939, इटावा के सैफई में सूघर सिंह यादव और मूर्ति देवी के घर मुलायम सिंह यादव का जन्म हुआ। सैफई में मूलभूत सुविधाएं नहीं थीं। स्कूल में पढ़ने जाते तो रास्ते में नदी पार करनी पड़ती। गांव में हर तरह की सुविधाएं हो ये बात उनके घर कर गई।
फिर जब साल 1967 में वो यूपी विधानसभा चुनावों में पहली बार उम्मीदवार बनकर राजनीति के मैदान में उतरे तो अपने गांवों को सही करने करने का वादा किया। दिक्कत थी, उनके पास चुनाव अभियान के लिए पैसे नहीं थे।
बीबीसी की खबर के मुताबिक, "एक दिन नेताजी के घर की छत पर गांव के लोगों की बैठक हुई। सबने इस बैठक में तय किया कि यदि वो दिन में एक टाइम का खाना छोड़ देते हैं, तो मुलायम सिंह यादव की गाड़ी आठ दिनों तक बिना किसी रुकावट चुनाव प्रचार में चल सकती है।''
गांव के लोगों की ये कोशिश सफल हुई और मुलायम सिंह पहली बार इटावा की जसवंतनगर विधानसभा सीट से विधायक चुने गए। और फिर अगले 55 सालों तक राजनीति की।
उस चुनाव के दौरान मुलायम सिंह मंच से अक्सर कहते - "आप मुझे एक वोट और एक नोट दें। अगर विधायक बना तो सूद समेत वापस लौटाऊंगा।''
फिर वो जैसे जैसे राजनीति की सीढ़ियां चढ़ते गए, वैसे-वैसे उनके गांव सैफई की सूरत बदलती गई। सड़क, शिक्षा, बिजली, पानी की सुविधाएं दुरुस्त हुईं।
एक वर्ल्ड क्लास स्टेडियम भी बनवाया। सैफई में अब हवाई पट्टी, एम्स की तर्ज पर बना मिनी पीजीआई और जंगल सफारी है।
मुलायम सिंह यादव 80 के दशक तक अपने राजनीतिक गुरु चौधरी चरण सिंह के साथ मिलकर इंदिरा गांधी को वंशवाद के मुद्दे पर घेरते रहे। लेकिन जैसे ही चौधरी साहब ने राष्ट्रीय लोकदल में अमेरिका से लौटे अपने बेटे अजित सिंह को पार्टी में अहमियत देनी शुरू की। मुलायम सिंह का सपना टूटने लगा। फिर क्या था, भरने लगे अपनी उड़ान और बन गए नेताजी।
चौधरी चरण सिंह के निधन के बाद लोकदल टूट सी गई। पार्टी का एक बड़े धड़े की अगुवाई मुलायम सिंह यादव करते थे। फिर साल 1992 में समाजवादी पार्टी बनाई और साइकल से पूरे प्रदेश की खूब सवारी की।
वंशवाद के मुद्दे पर नेताजी तो अपनी जिंदगी के अंत तक अटल रहे पर साल 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी की बड़ी जीत के बाद उन्होंने अपनी विरासत को अपने बेटे अखिलेश यादव को सौंप दिया।
अखिलेश के सीएम बने तो पार्टी में बड़ी बगावत देखने को मिली, कहीं भाई शिवपाल नाराज दिखे, तो कहीं उनके साथ काम करने वाले नेता। लेकिन, अंत में समाजवादी पार्टी की कमान अखिलेश यादव ही संभाल रहे हैं।
मुलायम सिंह यादव उन दिग्गज जमीनी नेताओं के तौर पर पहचान रखते थे, जिन्होंने अपने दम पर राजनीति में अपना मुकाम हासिल किया। मुलायम को यूपी की राजनीति में पिछड़ी जातियों के नेता के तौर पर पहचान मिली। और, मुलायम ने पहलवानी के अखाड़े में सीखे गए अपने सियासी दांवों से विरोधियों को पस्त कर दिया।
वैसे उपस्थिति तो मुलायम सिंह यादव ने हर वोटबैंक में भी अपनी दर्ज करवाई। कहने को यादव थे, यादव के बीच में जबरदस्त पैठ थी। लेकिन वक्त के साथ के साथ मुस्लिम समाज में उनकी लोकप्रियता ऐसी बढ़ी कि विरोधी तक उन्हें 'मौलाना' कहने लग गए।
लेकिन मुलायम सिंह यादव ने कभी भी इस तंज को खुद पर हावी नहीं होने दिया। उन्होंने अपनी उस राजनीति को भी लगातार धार दी। बाबरी मस्जिद को बचाना एक तरफ उन्होंने संविधान की रक्षा बताया, तो आगे भी कई मौकों पर अपनी योजनाओं के जरिए इस समाज को सशक्त करने का काम किया।
बड़ी बात ये भी रही कि मुस्लिमों की उत्तर प्रदेश में जब पहली पसंद सपा बन गई, कांग्रेस के पतन का भी ये एक बड़ा कारण रहा। इसी वजह से उत्तर प्रदेश में कभी राज करने वाली कांग्रेस सियासी हाशिए पर आ गई।
लेकिन फिर भी मुलायम सिंह यादव ने अपना व्यक्तित्व ऐसा रखा कि वक्त-वक्त पर उन्होंने कई दलों के साथ राजनीतिक गठबंधन किए। इसी वजह से अब जब वो हमारे बीच नहीं हैं तो दल कोई भी उनके योगदान की तारीफ करता ही हैं।
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