ये तस्वीर जो आप देख रहे है, इसे देखकर मन में क्या ख्याल आता है? शायद आप कहेंगे कि बगीचा अच्छा लगे इसलिए एक-दो फूल जो ज्यादा ऊपर उठ गए हैं, उन्हें काटकर बैलेंस में लाकर बगीचे को सुंदर बनाया जा रहा है। लेकिन अगर असलियत में ये एक ऐसे तरीके सिंबल हो, जो ये दिखाता हो कि ऊंचा उठते हुए किसी को कैसे रोकना है। तब दरअसल मैं और आप दोनों ही अपनी-अपनी जगह सही है। ये तस्वीर टॉल पॉपी सिंड्रोम को रिप्रेजेंट करती है। सीधे शब्दों में इसमें वर्कप्लेस पर महिला लीडर की ऊपर उठने की चाहत को कुतरने की कोशिश की जाती है, अपनी अलग पहचान या छवि बनाने के लिए उन्हें बेईमानी तरीकों से रोका जाता है।
टॉल पॉपी सिंड्रोम क्या है और क्यों इसे वर्कप्लेस पर महिला लीडर्स के एक्सपीरियंस के लिए इस्तेमाल में लाया जाता है। तो Women of Influence+ ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि टॉल पॉपी सिंड्रोम किसी भी तरह किसी की सफलता पर नाराजगी, आलोचना या धमकाने के अनुभव का वर्णन करता है, सीधे तौर पर इसे व्यक्ति को बदनाम करने की कोशिश को कहते हैं।
वैसे टॉल पॉपी सिंड्रोम का रिफरेंस न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया में ज्यादा किया जाता है, लेकिन रिपोर्ट्स कहती हैं कि इसका इम्पैक्ट दुनियाभर में है। अब जब आप टॉल पॉपी सिंड्रोम को समझ गए हैं तो इसका नाम ऐसा क्यों है और इस पर आई लेटेस्ट रिपोर्ट्स क्या कहती है, ये भी जान लेते हैं। 103 देशों की महिला लीडर्स के इंटरव्यू करने के बाद Women of Influence+ ने एक रिसर्च रिपोर्ट बनाई, जिसे 'द टॉलेस्ट पॉपी' नाम दिया गया।
इसमें बताया गया कि जो महिलाएं सफल हैं, उन्हें परेशान किया जा रहा है और नीचा दिखाया जा रहा है। उनकी सक्सेस पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं, उनकी आलोचना हो रही है और उन्हें आगे बढ़ने से रोकने की कोशिश की जा रही है। उन्हें ऐसा महसूस कराया जा रहा है कि अपनी पहचान बनाना, इतना रुतबा रखना उनका हक नहीं है।
वैसे इसे टॉल पॉपी क्यों कहते हैं, इसपर मीडिया वेबसाइट्स का कहना है कि रोमन काल में एक तानाशाह था, तक्तो। तानाशाह का एक बेटा था सेक्सटस, जो अपने पड़ोसी राज्यों पर कब्जा करना चाहता था। जिसके लिए उसने पिता से सलाह मांगी। तानाशाह राजा तक्तो अपने बेटे सेक्सटस को बगीचे में ले गया, जहां पर पॉपी, जिन्हें पोस्ता भी बोलते हैं, उसके फूल लगे थे। तो तानाशाह राजा ने अपनी तलवार से निश्चित ऊंचाई से अपनी तलवार चलाई और जो भी फूल ऊपर आएं, उन्हें काट दिया। जिससे सेक्सटस को समझ आया कि मजबूत लोगों को रास्ते से हटाना होगा, ताकि बाकी सबका मनोबल टूट जाए और वो हार मान लें और फिर सेक्सटस ने उसने ऐसा ही किया और जंग जीत ली। 1984 में ऑस्ट्रेलियाई राइटर सुसान मिशेल की बुक टॉल पॉपीज में इसका जिक्र पहली बार मिलता है। हालांकि ऐसा नहीं है कि सिर्फ महिलाओं को ही इसका सामना करना पड़ता है।
हालांकि सिर्फ महिलाओं को ही नहीं, पुरुषों को भी सक्सेस के रास्तें में इसका सामना करना पड़ता है। वैसे लोगों के बीच बैठकर मेल-फीमेल इक्वालिटी पर बात करना जितना आसान है, एक महिला को खुद से आगे बढ़ता देखना शायद कुछ लोगों के लिए इतना आसान नहीं होता। तभी वर्कप्लेस पर पुरुष की लीडरशिप में लिए निर्णयों को सेंसिबल कहने के साथ उन्हें क्रेडिट दिया जाता है, लेकिन वहीं अगर महिला लीडरशिप अगर कुछ कहें तो उसे ओवर एक्सप्रेसिव, ज्यादा बोलती या ज्यादा सोचती है, अहंकारी है, आसानी से कह दिया जाता है। महिलाओं से उम्मीद की जाती है कि वो अपनी बात को धीमी आवाज में कहें। वैसे इस दोहनेपन को डबल बाइंड इफेक्ट भी कहा जाता है।
वैसे ये सिर्फ कहने की बात नहीं है, आंकड़े भी ऐसा ही कहते हैं। रिसर्च में शामिल महिलाओं का कहना है कि काम की वजह से नहीं, बल्कि वो महिला हैं इस वजह से उन्हें वर्किंग प्लेस पर दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। द टॉलेस्ट पॉपी की स्टडी में शामिल महिलाओं में 77 परसेंट महिलाओं ने माना कि उनकी एचीवमेंट को और 70.7 परसेंट महिलाओं की काबिलियत को कम आंका गया। 72.4 परसेंट महिलाओं नजरअंदाज किया गया। तो वहीं 68.3 परसेंट महिलाओं की कामयाबियों को सिरे से नकार दिया गया। इसी के साथ 66.1 परसेंट महिलाओं को उनके काम का क्रेडिट नहीं मिला।
कई बार महिलाओं को यहां तक कह दिया जाता है कि उनके यहां तक पहुंचने की वजह उनका हार्डवर्क नहीं है बल्कि वो महिला है, ये है। लेकिन ऐसा क्यों है, इसके कई कारणों में एक कारण हाई पोस्ट्स पर महिलाओं का कम होना भी है। जैसे कि रिपोर्ट्स बताती हैं कि देश में टॉप मैनेजमेंट पोजीशंस पर 20 परसेंट से भी कम महिलाएं हैं। कंपनियों के बोर्ड्स में 17.1 परसेंट ही फीमेल पार्टिसिपेशन है, वो भी इसलिए क्योंकि कानूनी तौर पर लिस्टेड कंपनियों के बोर्ड में एक फीमेल होना जरुरी है। साइंस, टैक्नोलॉजी, STEM इंडस्ट्री में 3 परसेंट ही CEO हैं। तो वहीं स्टार्टअप्स में लीडरशिप पोजीशन पर सिर्फ 20 परसेंट ही महिलाएं हैं।
वैसे लोग इस बात पर महिलाओं को आसानी से सलाह दे सकते हैं कि बेवजह की चीजों में पड़ने की क्या जरुरत है, ध्यान ही मत दो। लेकिन शायद वो ये भूल जाते हैं कि स्कूल-कॉलेजेस में पढ़ाई यानी कि फार्मल एजुकेशन के साथ ही व्यवहार- बातचीत यानी कि इनफार्मल एजुकेशन पर भी जोर दिया जाता है। क्योंकि वो भी विकास के लिहाज से जरुरी होता है। वैसे ही महिला-पुरष को हेल्दी इनवायरमेंट भी जरुरी होता है।
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